बिहार में पर्यावरणीय चुनौतियों के अनुकूल विकास की जरूरत, जनता को व्यापक बहस में हिस्सेदार बनाना होगा: प्रो पुष्पेंद्र

बिहार में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज है। फिलहाल सरकारी नौकरियां देने और बांग्लादेशी घुसपैठ को रोकने जैसे मुद्दे को हवा दिया जा रहा है। चुनाव प्रचार की तीव्रता के साथ कई और मुद्दे छाएंगे। हालांकि बिहार प्राकृतिक आपदा, बहु आयामी खतरों (multi hazard), पलायन व अत्यधिक गरीबी दर का सामना करने वाला एक राज्य है। ऐसे में यह सवाल है कि चुनावी चर्चा में ये मुद्दे कहां ठहरते हैं या इन पर कितनी बहस हो पाती है।

क्लाइमेट ईस्ट के लिए राहुल सिंह ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र कुमार से बिहार से जुड़े इन्हीं मुद्दों पर पटना में बात की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश –

सवाल: बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहा है। चुनाव में बिहार के बड़े मुद्दे, बड़े सवाल केंद्र में क्यों नहीं आते दिखते हैं? एक ऐसा राज्य जो देश का सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित प्रदेश है, जहां से पलायन की दर सबसे अधिक है और आबादी का दबाव व गरीबी भी सबसे अधिक है?

जवाब: राजनीतिक दलों व राजनेताओं ने अपने लिए मुद्दे गढ़े हैं और वे उसे केंद्र में रखते हैं। पर्यावरण या जलवायु से जुड़े मुद्दे लोगों का मुद्दा हैं, क्योंकि वे उससे जूझते हैं। लेकिन, यह पॉलिटिकिल मोबिलाइजेशन का मुद्दा नहीं है।

बिहार हर साल बाढ़ की व्यापक तबाही झेलता है। कोशी, गंडक, गंगा सहित अनेकों नदियों से हर साल कटाव भी होता है, बड़ी संख्या में लोग उससे जूझते हैं। इससे लोगों की आय प्रभावित होती है, उनके द्वारा सृजित किया गया एसेट खत्म हो जाता है, सर्पदंश से लोगों की मौत होती है, बच्चों की पढाई छूट जाती है। ऐसे मुश्किल वक्त के समय भिन्न प्रकार के हिंसा (violence) के मामले होते हैं।

वहीं, राजनीतिक दलों के निहित स्वार्थ हैं। ऐसे में यह सोचना होगा कि लोगों के मुद्दों को कैसे एड्रेस करना चाहिए। बाढ़ को सिर्फ आपदा प्रबंधन के लैंस से नहीं देखना चाहिए। मुझे लगता है कि आपदा और जलवायु आपदा में विभेद करना चाहिए। जैसे भूकंप जलवायु आपदा है। जबकि बाढ़ का खतरा मानव हस्तक्षेप से बढा है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि मानव हस्तक्षेप नहीं होगा तो वह खत्म हो जाएगा, क्योंकि नदियों पर हमारा नियंत्रण नहीं है।

ऐसे में बिहार की बाढ़ को नदी की पारिस्थिकी द्वारा जनित आपदा की तरह देखे जाने की जरूरत है। साल दर साल जो स्ट्रक्चर असफल हैं, मसलन बड़े बाँध, उस पर प्रश्न करने के बजाय उसे ही कैसे मजबूत किया जाए, यह नजरिया बदलना होगा। यदि आप बाढ़ को महज आपदा प्रबंधन के नजरिये से देखेंगे तो सारा जोर रेस्क्यू, रिलीफ और रिहैबिलिटेशन पर होगा। बाढ़ की समस्या का कोई संतोषजनक समाधान कैसे किया जाए, यह सोचना चाहिए।

सवाल: जन सुराज के नेता प्रशांत किशोर को अपने एक इंटरव्यू में बिहार में बाढ़ की समस्या के मद्देनजर वाटर ग्रिड बनाने की बात कहते मैंने सुना। क्या यह संभव है?

जवाब: वाटर ग्रिड कैसे बनाएंगे, इतनी बड़ी मात्रा में आने वाले पानी को आप कहां स्टोर करके रखेंगे? उसके लिए आपको रिजरवायर या ऐसी अनेकों संरचनाएं बनानी होंगी जो संभव नहीं है। यह बिजली नहीं है, जिसके लिए आप ग्रिड बना लें।

आप देखिए, बिहार अब बाढ़ और सूखे की दोहरी चुनौती से एक साथ जूझ रहा है। यह किसानों की आय को प्रभावित करता है। अब बाढ़ देर से आती है, सितंबर के आखिरी दिनों में या अक्टूबर के शुरू में। इससे पानी की निकासी समय पर नहीं होने की वजह से फसलों की बोआई में देरी होती होती है। यह स्थिति किसानों को प्रभावित करती है।

वहीं, दूसरी ओर सिंचाई के लिए किसान बारिश पर निर्भर हैं। लघु सिंचाई निष्क्रिय है। भूजल स्तर कम हो गया है। आहार पायन का सदियों पुराना सिस्टम लगभग खत्म हो गया है। मध्य व दक्षिण बिहार में वाटर बॉडी कम हैं। ये तमाम चुनौतियां व दिक्कतें किसानों को प्रभावित करती हैं।

सवाल: इतनी चुनौतियों के बीच बिहार की परिस्थितियों के अनुसार किस तरह के विकास मॉडल को अपनाने की जरूरत है? संसाधनों पर लोगों का दबाव या बोझ अधिक है।


जवाब: बिहार में क्लाइमेट फ्रेंडली या पर्यावरण अथवा जलवायु अनुकूल विकास मॉडल को अपनाने की जरूरत है।
गंगा जिसमें अनेकों नदियां मिलती हैं, उसमें खुद का पानी कम हो गया है और गाद की समस्या बढ गई है। जब विभिन्न नदियों का पानी बड़ी मात्रा में गाद लाता है तो नदियों की गहराई कम हो जाती है, वह स्थिति बिहार में है।

बिहार की नदियों के लिए कटिहार जिला एक मास्टर ड्रेन हुआ करता था, क्योंकि वहां कई नदियां गंगा में मिलती हैं। लेकिन, इस मास्टर ड्रेन में अब गाद को आगे लेकर जाने की क्षमता नहीं है, जिससे वहां पानी आसपास फैल जाता है। पानी का यह फैलाव किसानों को व उनकी खेती को प्रभावित करता है।

दूसरी ओर, उत्तर बिहार में पानी की कमी का खेती में असर थोड़ा कम है। लेकिन, पूरे सेंट्रल बिहार व दक्षिण बिहार में पानी की कमी है। कहीं-कहीं पूरे आहार पायन सिस्टम को फिर से शुरू करने की कोशिश हुई। कई तरह के प्रयोग किए गए। इसलिए विकास की नीतियां तय करने में उन प्रयागों से मिली शिक्षाओं को ध्यान में रखना जरूरी है।

वर्तमान में राज्य में जो विकास कार्य हो रहे हैं, उसके लिए विमर्श की जरूरत है। जनता को आप सिर्फ रेगुलेट नहीं कर सकते हैं, आप उन्हें व्यापक पब्लिक डिबेट में शामिल कीजिए। पर्यावरणीय बहस को राजनीति का मुद्दा बनाना होगा। उसे प्रशासन, विकास व उन्नति का एजेंडा बनाना होगा।

अभी जो बिहार का विकास दर है, वह कंस्ट्रक्शन ड्रिवेन (आधारभूत संरचना के निर्माण से संचालित) है। कंस्ट्रक्शन ड्रिवेन ग्रोथ से पर्यावरणीय क्षति भी होती है।

तो जैसे कहते थे, डेवलपमेंट विद सोशल जस्टिस, उसी तरह अब कहना होगा डेवलपमेंट विद सोशल जस्टिस एंड इकोलॉजी।

क्लाइमेट फ्रेंडली डेवलपमेंट ऐसे शब्दों का प्रयोग करना होगा। अबतक कहीं से, किसी पक्ष से नहीं कहा गया है कि इनवायरमेंट फ्रेंडली डेवपलमेंट होगा।

संसाधनों पर लोगों का दबाव तब कम होगा, जब उनकी विकासत्मक जरूरतें पूरी होंगी। उनकी जागरूकता का स्तर बेहतर होगा।

सवाल: बिहार एक बड़ी आबादी वाला राज्य है और राजधानी पटना पर जनसंख्या व संसाधनों के लिए लोगों की निर्भरता का बोझ काफी ज्यादा है। पटना के बाद राज्य के जो दूसरे प्रमुख शहर हैं, जैसे मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया, दरभंगा, सहरसा है, उनका वैसा विकास हुआ नहीं दिखता है। दो दशकों में पटना सेंट्रिक विकास रहा है। आप इसे कैसे देखते हैं?


जवाब: सिटी के ग्रोथ का एक इकोनॉमिक बेसिस (आर्थिक आधार) होता है। पटना के बाद जिलों के हेडक्वार्टर है, जहां प्रशासन का एक बड़ा सिस्टम काम करता है। वहां यूनिवर्सिटी होती है, कॉलेज होते हैं, कईं संस्थान होते हैं और उसके लिए काम करने वाले लोग होते हैं। इसलिए जिलों के हेडक्वार्टर छोटे शहर बन जाते हैं। लेकिन पटना के बाद 10 लाख की आबादी वाला शहर बिहार में कोई नहीं है। ज्यादा से ज्यादा पांच से सात लाख तक की आबादी के शहर हैं।

दरअसल, इनके विकास का आर्थिक बुनियादी आधार नहीं है। कंस्ट्रक्शन बेस्ड इकोनॉमी ग्रोथ (संरचनागत निर्माण आधारित आर्थिक विकास) से शहरीकरण की एक सीमा है। कंस्ट्रक्शन एक टाइम होता है और यह केवल शहरी भी नहीं है।

शहर एक सतत आर्थिक आधार (सस्टेन इकोनॉमी बेसिस) पर बनता है। वह यहां है नहीं। इसलिए यह राज्य अपने एकाध इंडिकेटर, जैसे बाल मृत्युदर को छोड़ दीजिए, तो उसे सुधार नहीं पा रहा है।

इस राज्य के विकास में सबसे पीछे होना समस्या नहीं है, अगर अमेरिका का एवरेज विभिन्न पैमाने पर अच्छा है, तो वहां के 50 राज्यों में कोई तो 50वें नंबर पर होगा ही।

समस्या यह है कि विभिन्न पैमाने या इंडिकेटर पर जो राष्ट्रीय औसत है, क्या हम उसके आसपास हैं या नहीं? अगर कहीं दूर-दूर तक नहीं हैं, तो क्यों नहीं हैं? तो उसका जवाब है कि वह ठोस बुनियाद नहीं है, जिसके आधार पर अरबनाइजेशन (शहरीकरण) हो। जिसके आधार पर यहां के कुशल कामगारों का एक बड़ा हिस्सा यहीं बना रहे या जिसके आधार पर आप बाहर से भी लोगों को राज्य में आने के लिए आकर्षित करें।

अभी क्या स्थिति है? अभी हम केवल खेती में काम करने वाले कुछ मजदूरों को आकर्षित कर पाते हैं, जैसे बंगाल से लोग आते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा यहां कंस्ट्रक्शन बेस्ड डेवलपमेंट ड्राइव है तो कंस्ट्रक्शन में काम करने वाले लोग बाहर से यहां आते हैं। क्योंकि, इंपलायर (रोजगार देने वाले) लोकल लेबर को प्राथमिकता नहीं देते हैं, वे कैप्टिव लेबर को प्राथमिकता देते हैं। उनका कोई यूनियन नहीं होता है, लोकल कनेक्शन नहीं होता, ठेकेदार की उन पर नजर रहती है। वे लेबर कॉलोनी सेटअप कर काम कराते हैं। वह पूरा काम टास्क बेसिस होता है, और फिर उन्हें दूसरी जगह लेकर चले जाते हैं।

सवाल: उत्तर बिहार के कई जिले अत्यधिक पिछड़े हैं। कई जिलों में गरीबी काफी अधिक है। ऐसे में क्या हो सकता है?

जवाब: उनके आगे बढने के लिए क्या उपाय है, यह एक सवाल है। एक उपाय है कि खेती का विकास हो, लेकिन खेती के विकास की भी एक सीमा है। राज्य में करीब-करीब आधी आबादी (48 प्रतिशत) भूमिहीन है, वे परिवार मजदूर बन कर काम करेंगे। खेती सबसे कम पारिश्रमिक वाला पेशा है। यह रोजगार के लिहाज से प्राथमिकता वाला फील्ड नहीं है और एक ऐसा काम नहीं है जिसकी आकांक्षा या एस्पिरेशन हो। बहुत सारे ग्रामीण रोजगार आकांक्षी रोजगार नहीं हैं, बहुत कम ही रूरल जॉब ऐसे हैं।

खेतिहर मजदूर अपनी कम आय की भरपाई के लिए बंटाईदारी पर खेती करते हैं। चूँकि आधुनिक खेती और लागत के लिए उनके पास संसाधन कम होते हैं तो वे अपने ही श्रम का अनावश्यक और अत्यधिक दोहन करते हैं। खेती से आय इस बात पर भी निर्भर करती है कि कैसी व किस फसल की खेती हो रही है। यह महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि खेती में रिटर्न कम है। आप देखेंगे कि बिहार में बीते दशकों में मकई के खेती काफी बढी। शुरू में इससे काफी लाभ हुआ है, लेकिन फिर बाजार में मकई की कीमतों में उतार-चढाव आने लगा। इससे आय घट गयी है। इसकी खेती में बाल श्रम का इस्तेमाल बहुत बढ गया है।

उत्तर बिहार को तरक्की करनी है एक साथ कई तरीके अपनाने होंगे। एक तरीका है कि वे बाहर जाकर कमायें जो पहले से ही हो रहा है। ग्रोथ का यह एक तरीका है, लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि लेबर मार्किट में श्रम का रिटर्न क्या है? श्रम का लो रिटर्न ही मूल समस्या है। हम मानते हैं कि माइग्रेशन या पलायन को हतोत्साहित नहीं करना चाहिए।

अगर देश में लेबर मार्केट दबाव में है, मजदूरी कम है, काम मौसमी है, काम करने की स्थिति खराब है जहां मजदूर के काम करने की क्षमता कम हो जाती है, तो माइग्रेशन के परिणामस्वरूप परिवारों का जीवनयापन तो हो जाता है लेकिन वे विकसित नहीं हो पाते।

सवाल: बिहार का श्रम बल या लेबर फोर्स को कैसे देखते हैं, उसमें क्या बदलाव आ रहा है?


जवाब: देखिए, कहीं भी लोकल लेबर की बहुतायत है तो वर्क एबिलिविलिटी यानी काम की उपलब्धता के दिन घट जाते हैं। जब लेबर बाहर जाकर काम करता है तो वहाँ काम के दिन बढ जाते हैं। वे स्लम में या मुश्किल हालात में रहते हैं, पैसों की बचत करते हैं और अपने गांव में अपनी सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। गांव में मकान होना या घर पर एक बाइक होना एक सोशल सिंबल या स्टेटस है। इसमें निवेश बढ रहा है।

सामाजिक स्थिति को मजबूत करने की जरूरतों या चाहत ने माइक्रो फाइनेंस के कर्ज का चलन बढाया है।

हर महीने कमा कर घर नहीं बनाया जा सकता है, न दूसरी सोशल स्टेटस वाली जरूरतें पूरी हो सकती हैं। यह माइक्रोफाइनेंस से हो रहा है। लोन लेकर चीजें खरीदने की आदत लग रही है। इससे उपभोग पर खर्च बढ गया है। श्रमिकों की कमाई का अच्छा खासा हिस्सा बकाये के भुगतान में जा रहा है। जो अकादमिक लोग या सामाजिक कार्यकर्ता जमीन पर जा रहे हैं, काम कर रहे हैं, वे यह समझ पा रहे हैं कि इसने यहाँ तक कि आत्महत्या को ड्राइव करना शुरू किया है। वैसे ही जैसे कुछ राज्यों में खेती के लिए लिए गए कर्ज की वजह से आत्महत्याएं होती हैं।


माइक्रोफाइनेंस
की वजह से आत्महत्या के कई मामले दर्ज हैं। घटनाएं घट रही हैं। वह अभी किसी लार्ज स्टडी का पार्ट नहीं बना है, लेकिन जमीनी कार्यकर्ता मामले गिनाते हैं। लार्ज स्केल स्टडी में भी यह दिख रहा है कि कर्ज बढा है। पर उस पर केंद्रित सर्वे-अध्ययन करना होगा।

(नोट: हमने इस इंटरव्यू में कुछ हाइपर लिंक का प्रयोग किया है, ये हाइपर लिंक उन मुद्दों पर हैं या उनसे जुड़े हैं, जिस पर प्रो पुष्पेंद्र कुमार ने हमसे प्रमुखता से बात की है। आमतौर पर इंटरव्यू में हाइपर लिंक के प्रयोग का चलन कम या नहीं है, लेकिन हमने पाठकों को उस विषय की गहराई में जाने के लिए या एक संदर्भ देने के लिए इसका प्रयोग किया है।)

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