
किरसेन खड़िया
चाय मजदूर अधिकार कार्यकर्ता
9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस यह दिन आदिवासी समुदायों की संस्कृति, संघर्ष और अधिकारों को याद करने का अवसर है। लेकिन उत्तर बंगाल के चाय बागानों में रहने वाले आदिवासियों के लिए यह दिन केवल एक औपचारिक उत्सव बनकर रह गया है। अलीपुरद्वार, जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग के चाय बागानों में आदिवासी श्रमिकों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। न्यूनतम वेतन, जमीन का मालिकाना हक, भुखमरी से मौतें, और सरकारी फंड का दुरुपयोग जैसे मुद्दे आज भी उनकी जिंदगी को जकड़े हुए हैं। यह लेख इन मुद्दों की गहराई में जाकर सरकार और समाज से जवाब मांगता है।
पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में आदिवासी समुदाय, जो मुख्य रूप से संताल, मुंडा, उरांव खड़िया, बड़ाइक, माहाली और अन्य जनजातियों से हैं, पिछले दो सौ वर्षों से बंधुआ मजदूरी की स्थिति में जी रहे हैं। ब्रिटिश काल में इन समुदायों को झारखंड, छत्तीसगढ़, और ओडिशा जैसे क्षेत्रों से लाकर चाय बागानों में बसाया गया। जंगलों को साफ कर चाय की खेती शुरू करने वाले ये लोग आज भी अपने मूल अधिकारों से वंचित हैं। न्यूनतम वेतन, जमीन का मालिकाना हक, और बुनियादी सुविधाएं जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं इनके लिए सपना बनकर रह गई हैं।
पश्चिम बंगाल के चाय बागान श्रमिकों को न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के तहत तय मजदूरी से भी कम वेतन मिलता है। 2023 में, राज्य सरकार ने दैनिक मजदूरी में 18 रुपये की वृद्धि का ऐलान किया, जिसके बाद मजदूरी 232 रुपये से बढ़कर 250 रुपये प्रतिदिन हुई। लेकिन यह वृद्धि भी बाजार में मिलने वाली मजदूरी (600 रुपये प्रतिदिन) की तुलना में नगण्य है। चाय बागान मालिकों ने इस मामूली वृद्धि के खिलाफ भी कलकत्ता हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिस पर कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि मालिक श्रमिकों को न्यूनतम वेतन देने से भी बचना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल चाय मजदूर समिति एक गैर राजनीतिक स्वतंत्र ट्रेड द्वारा चाय मजदूरों के न्यूनतम वेतन के लिए जमीन से लेकर कोर्ट तक संघर्ष कर रही है । समिति द्वारा कोलकाता हाई कोर्ट में रीट याचिका दायर की गई है। समिति द्वारा सरकार से लगातार न्यूनतम वेतन की लागू का मांग किया जा रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता अर्जुन इंदवार का कहना है, “बाजार में मजदूरों को 600 रुपये मिलते हैं, तो 200 रुपये में बागान के श्रमिक कैसे काम करेंगे?” यह सवाल न केवल चाय बागान मालिकों की मानसिकता को उजागर करता है, बल्कि सरकार की उदासीनता को भी दर्शाता है। न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति, जो 2015 में गठित हुई थी, आठ साल और 18 बैठकों के बाद भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकाल पाई।
चाय बागानों में रहने वाले आदिवासियों को उनकी जमीन का मालिकाना हक देने की मांग दशकों पुरानी है। पश्चिम बंगाल सरकार ने 2023 में 5 डिसमिल जमीन देने की घोषणा की, लेकिन यह कदम मजदूरों के साथ धोखा है। ‘दलित आदिवासी दुनिया’ के संपादक मुक्ति तिर्की के अनुसार, “पूरा चाय बागान ही मजदूरों का है। वे डेढ़ सौ साल से यहां रह रहे हैं, और वनाधिकार कानून 2006 के तहत उन्हें पूरी जमीन का मालिकाना हक मिलना चाहिए।” 5 डेसिमल पट्टा के विरोध में तराई डूवर्स और पहाड़ के लोगों ने जमकर विरोध किया है। ज्वाइंट एक्शन कमिटी द्वारा लगातार 5 डेसिमल पट्टा और 30% जमीन पूंजीपतियों के हस्तांतर करने के विरोध में लगातार आंदोलन किया जा रहा है । 20 मार्च 2024 को यूनाइटेड फोरम फॉर आदिवासी राइट्स और ज्वाइंट एक्शन कमिटी द्वारा उत्तर कन्या अभियान किया गया जिसमें करीब 30 हजार लोग शामिल हुए थे जिनका एक ही मांग थी चाय मजदूरों को पूरा जमीन पर मालिकाना अधिकार दिया जाए।
चाय बागान मालिकों का तर्क है कि अगर श्रमिकों को जमीन का अधिकार मिलेगा, तो वे काम पर नहीं आएंगे। यह तर्क न केवल मजदूरों के अधिकारों का हनन करता है, बल्कि उनकी आजादी को गुलामी से जोड़ता है। 1953 के वेस्ट बंगाल लैंड एक्वीजीशन एक्ट के तहत सरकार ने मजदूरों की जमीन को हड़पकर बागान मालिकों को सौंप दिया, और अब उसी जमीन का एक छोटा हिस्सा वापस देने का नाटक कर रही है।
उत्तर बंगाल के चाय बागानों में भुखमरी और कुपोषण एक गंभीर समस्या है। गर्गंदा और मधु चाय बागानों में हाल के वर्षों में भुखमरी से मौतें हुईं, जिनमें 2024 में 58 वर्षीय धनी उरांव की मृत्यु शामिल है। लेकिन सरकार इन मौतों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। चाय बागानों के बंद होने से हजारों मजदूर बेरोजगार हो गए हैं, और उनके पास आजीविका का कोई वैकल्पिक साधन नहीं है। राइट टू फूड और PBCMS द्वारा गैरगंडा चाय बागान में एक सर्वे किया गया जिसमें 38% लोगों का BMI ( Body Mass Index) सामान्य से कम रहा, जोकि भुखमरी को दर्शाता है।
चाय बागान मालिकों द्वारा मजदूरों के प्रोविडेंट फंड (पीएफ) का पैसा काटकर जमा न करना एक बड़ा घोटाला है। मुक्ति तिर्की के अनुसार, “बागान मालिक गैर-कानूनी तरीके से बागान बंद कर भाग जाते हैं, और मजदूरों का पीएफ तक जमा नहीं करते।” यह न केवल मजदूरों के आर्थिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि उनकी मेहनत की कमाई की चोरी भी है। PBCMS द्वारा डूवर्स की 29 चाय बागान की बकाया को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किया गया है जिसमें एक रिटायर्ड जज अभय मनोहर सप्रे के अधीन एक कमिटी का गठन किया गया जो चाय मजदूरों का बकाया के ऊपर जांच कर रही है। इसी मामला के तहत PF दफ्तर ने समिति को 29 बागानों के पीएफ बकाया का हिसाब भेजा जिसमें करीब 64 करोड़ रुपए बकाया दिखाया गया है जोकि आधिकारिक जानकारी है ।
विश्व आदिवासी दिवस, जो आदिवासी समुदायों के अधिकारों और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है, उत्तर बंगाल में सरकारी आयोजनों में केवल नाच-गाने और शराब के दौर तक सिमट गया है। सामाजिक संगठनों ने इस दिन को आदिवासियों के संघर्ष को उजागर करने का प्रयास किया, लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें बदनाम करने की कोशिश की। कैलाशपुर चाय बागान जलपाईगुड़ी जिला में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद, आदिवासी एकता विकाश मंच, आदि धर्म सभा ओर अन्य संगठनों ने मिलकर आदिवासी दिवस मनाया। आदिवासी अगुवाओं ने सरकारी प्रोग्राम का जमकर विरोध किया। सुरेश केरकेट्टा कहते हैं, ” गुर्ज़ानझोरा चाय बागान मालबाजार ब्लॉक में सरकारी प्रोग्राम किया जा रहा है गैर आदिवासी को लेकर प्रोग्राम किया जा रहा है, आदिवासियों के हक अधिकार की कोई बात नहीं है, आदिवासियों के लिए जो फंड आता है उसका दुरुपयोग किया जा रहा है। “
दार्जिलिंग जिला के बागडोगरा इलाके नॉर्थ बंगाल ट्राइबल यूथ एसोसिएशन द्वारा विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया, जिसमें आदिवासी अगुवाओं और युवाओं ने अपनी संस्कृति और एकता का प्रदर्शन किया।
बकराकोट मोड़, जिला जलपाईगुड़ी में एक कार्यक्रम के दौरान भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा के सामने अश्लील गानों पर नाच और शराबखोरी ने इस दिन के महत्व को कम कर दिया।
करम पूजा और बिरसा मुंडा जयंती जैसे अवसरों को भी सरकार केवल औपचारिक आयोजनों तक सीमित रखती है, बिना आदिवासियों के वास्तविक मुद्दों पर ध्यान दिए। सरकारी फंड का उपयोग बड़े-बड़े कार्यक्रमों में हो रहा है, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, और संरक्षण जैसे क्षेत्रों में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा।
पश्चिम बंगाल सरकार और चाय बागान मालिकों की सांठगांठ आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा कारण है। अर्जुन इंदवार का आरोप है कि सत्ताधारी पार्टी को चाय बागान मालिकों से भारी चंदा मिलता है, जिसके कारण सरकार श्रमिकों के अधिकारों पर ध्यान नहीं देती। ‘जय जोहार पेंशन स्कीम’ जैसे छोटे-मोटे उपाय केवल वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा हैं।
आदिवासी समुदाय की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार को निम्नलिखित कदम तत्काल उठाने चाहिए:
1.पूर्ण मालिकाना हक : चाय बागान की पूरी जमीन, जिसे आदिवासियों ने अपने खून-पसीने से बनाया, उनके नाम की जानी चाहिए। 5 डिसमिल का पट्टा एक छलावा है। वनाधिकार कानून 2006 को सख्ती से लागू करना होगा।
2.न्यूनतम वेतन का पालन : न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 के तहत चाय बागान श्रमिकों को कम से कम 590 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलनी चाहिए।
- चाय बागानों को बचाने के लिए विशेष पैकेज : बंद हो रहे चाय बागानों को पुनर्जनन के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और नीतिगत सुधारों की जरूरत है।
4.रोजगार के अवसर : आदिवासियों के लिए वैकल्पिक रोजगार के साधन, जैसे कुटीर उद्योग, कृषि, और पर्यटन को बढ़ावा देना होगा।
5.शिक्षा और स्वास्थ्य : विश्वविद्यालय, अस्पताल, खेल अकादमी, और गुणवत्तापूर्ण स्कूलों की स्थापना जरूरी है।
6.भाषा और संस्कृति की मान्यता : आदिवासी भाषाओं को संवैधानिक मान्यता और स्कूलों में पढ़ाई का हिस्सा बनाना होगा।
- पीएफ घोटाले पर कार्रवाई : पीएफ की चोरी करने वाले बागान मालिकों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।
विश्व आदिवासी दिवस केवल नाच-गाने का अवसर नहीं है यह आदिवासियों के संघर्ष को समझने और उनके अधिकारों की रक्षा करने का दिन है। उत्तर बंगाल के चाय बागानों में आदिवासी श्रमिकों की स्थिति बंधुआ मजदूर से कम नहीं है। सरकार को पूंजीपतियों के प्रति अपनी निष्ठा छोड़कर मूलनिवासियों को प्राथमिकता देनी होगी। बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिकारी नेताओं की विरासत को सम्मान देने का अर्थ है, उनके सपनों को साकार करना एक ऐसा समाज जहां आदिवासियों को उनकी जमीन, सम्मान, और आजादी मिले।
सामाजिक संगठनों और युवाओं ने इस दिशा में कदम उठाए हैं, लेकिन उनकी आवाज को दबाने की कोशिशें हो रही है। अब समय है कि आदिवासी समुदाय एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई को और तेज करें। यह क्रांतिकारी बदलाव का समय है, जहां सरकार को यह समझना होगा कि बिना जमीन और आर्थिक न्याय के आदिवासियों का विकास अधूरा है।