संताल परगना की स्थापना देश के पहले संगठित विद्रोह 1855 के संताल हूल की परिणति है। इस संगठित विद्रोह के बाद अंग्रेज शासन ने संताल परगना प्रशासनिक क्षेत्र का गठन किया था।
सच्चिदानंद सोरेन
22 दिसंबर का दिन झारखंड के संताल परगना क्षेत्र में संताल परगना स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता बहुत खास है, क्योंकि यह दिन भारतीय इतिहास के उस अध्याय से जुड़ा है, जब आदिवासी समुदाय ने अपने अस्तित्व, अधिकार और अस्मिता की रक्षा के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक अद्वितीय संघर्ष किया था। संताल हूल 1855 के विद्रोह के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार को मजबूर होकर संताल परगना नामक एक अलग प्रशासनिक क्षेत्र का गठन करना पड़ा था। इस क्षेत्र को विशेष रूप से संताल आदिवासियों के अधिकारों और उनके सांस्कृतिक, सामाजिक और भूमि संबंधी अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया था।
संताल परगना की स्थापना का सीधा संबंध 1855 के संताल हूल यानी संताल विद्रोह से है। यह विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत, स्थानीय ज़मींदारों और महाजनों के अत्याचारों के खिलाफ सिदो मुर्मू, कान्हू मुर्मू, चाँद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू के नेतृत्व में हुआ था, जो एक ही परिवार के थे। संताल आदिवासी समुदाय अपनी भूमि, जल, जंगल और आजीविका की सुरक्षा के लिए एकजुट हुआ और ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन खड़ा किया।
इस सशक्त विद्रोह के कई कारण थे। भूमि की लूट एक अहम वजह थी। ब्रिटिश हुकूमत और ज़मींदारों ने संताल आदिवासियों की कृषि भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। महाजन और साहूकार आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर उनकी भूमि छीनने लगे थे। कर प्रणाली और पुलिस अत्याचार से आदिवासी परेशान थे। आदिवासियों पर अत्यधिक कर लगाया गया था और विरोध करने वालों को पुलिस के माध्यम से प्रताड़ित किया जाता था। आदिवासी समाज की पारंपरिक जीवनशैली, संस्कृति और आर्थिक व्यवस्था को बदलने का प्रयास किया जा रहा था। अंग्रेज और पुलिस द्वारा आदिवासी महिलाओं पर बुरी नजर रखा जाता था।
30 जून 1855 को 30 हजार से अधिक संताल आदिवासी झारखंड के वर्तमान के साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में एकत्र हुए और सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन और शोषणकारी महाजनों से स्वतंत्रता की घोषणा की। यह विद्रोह जल्द ही एक व्यापक आंदोलन में बदल गया, जिसे दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार पहले बार मार्शल लॉ लागू करना पड़ा। इस दौरान हजारों आदिवासी मारे गए इस विद्रोह को संताल हूल के नाम से जाना गया। इसमें संताल आदिवासी समुदाय के लोगों ने उपनिवेशी शोषण के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया। इस संघर्ष में अन्य समुदाय के लोगों ने भी अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से साथ दिया। यद्यपि यह विद्रोह क्रूरता से दबा दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिश शासन को हिला दिया और उन्हें इस क्षेत्र की शासन प्रणाली और सामाजिक.आर्थिक संरचना पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया।
संताल परगना का गठन
संताल हूल के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने महसूस किया कि आदिवासी समुदाय को दबाने के लिए केवल सैन्य बल ही पर्याप्त नहीं है। आदिवासियों की भूमि, जंगल और संस्कृति के प्रति विशेष लगाव को देखते हुए, ब्रिटिश शासन ने एक नई रणनीति अपनाई। 22 दिसंबर 1855 को ब्रिटिश सरकार ने संताल परगना क्षेत्र को एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में स्थापित किया। इस इकाई के भूमि और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संताल परगना काश्तकारी अधिनियम बनाया गया। संताल परगना काश्तकारी अधिनियम सिर्फ आदिवासियों पर लागू नहीं होता है, बल्कि यह अधिनियम उन सभी गैर आदिवासी काश्तकारों, किसानों और भूमि धारकों पर भी लागू होता है जो संताल परगना क्षेत्र के भीतर भूमि का उपयोग करते हैं। इसका उद्देश्य भूमि पर आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था, लेकिन इसके नियम और प्रावधान अन्य गैर.आदिवासी काश्तकारों पर भी लागू होते हैं।
संताल परगना के भौगोलिक और प्रशासनिक पहलू
संताल परगना क्षेत्र पहले एक ही जिला हुआ करता था जो अब झारखंड के छह जिलों में विभाजित है, ये जिले हैं – दुमका, गोड्डा, साहिबगंज, पाकुड़, देवघर व जामताड़ा, इसमें दुमका इन जिलों का या इस क्षेत्र का प्रमंडलीय मुख्यालय है।
संताल परगना क्षेत्र में ज्यादातर संताल आदिवासी रहते हैं, जो यहां की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा हैं। यहां की संस्कृति और परंपराएं भारत की अनमोल धरोहर हैं। आदिवासियों के लोकगीत, नृत्य और रीति-रिवाज यहां के समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। इस क्षेत्र में जंगल, वनस्पति और खनिज की प्रचुरता है, जो इसे प्राकृतिक संसाधनों का धनी क्षेत्र बनाता है।
संताल परगना स्थापना दिवस का महत्व
संताल परगना स्थापना दिवस संताल व आदिवासी गौरव और पहचान का प्रतीक है। संताल हूल और संताल परगना का निर्माण न केवल ऐतिहासिक रूप से मील का पत्थर है, बल्कि यह संताल परगना, झारखंड के साथ-साथ देश की दृढ़ता और गौरव का प्रतीक भी है। यह उस दिन की याद दिलाता है जब आदिवासी समाज ने अपने संघर्ष और बलिदान के दम पर बिट्रिश हुकूमत के समय ही एक विशेष क्षेत्रीय पहचान हासिल की। यह आदिवासी गौरव, साहस और आत्म-सम्मान का प्रतीक है। 22 दिसंबर को संताल परगना स्थापना दिवस के रूप में मनाना, शहीदों के बलिदानों और उनके संघर्ष की अमर विरासत को श्रद्धांजलि देने का एक उपयुक्त अवसर है। यह हमें हमारे गौरवपूर्ण इतिहास के महत्व को याद दिलाता है। संताल हूल अंगेजों के विरुद्ध लड़ा गया भारत का पहला जन आंदोलन है।
संताल परगना दिवस आदिवासी अस्मिता का प्रतीक है। यह दिन आदिवासी गौरव का भी प्रतीक है, क्योंकि इस दिन संताल आदिवासियों की भूमि और सांस्कृतिक अधिकारों को ब्रिटिश सरकार ने मान्यता दी। सिदो मुर्मू, कान्हू मुर्मू, चाँद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू जैसे महान वीरों के बलिदान का सम्मान इस दिन किया जाता है। यह दिन आदिवासी समुदाय के अधिकारों और संस्कृति की रक्षा के प्रति एक प्रतिबद्धता की याद दिलाता है। यह दिन दिखाता है कि शोषित और वंचित समुदाय भी संगठित संघर्ष के माध्यम से न्याय और अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। यह दिन हमें यह भी सिखाता है कि जब कोई समाज अपनी अस्मिता और अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट होकर संघर्ष करता है, तब तक उसे कोई हरा नहीं सकता। सिदो मुर्मू-कान्हू मुर्मू और अन्य की कुर्बानी और 22 दिसंबर का दिन हर साल यह याद दिलाता है कि असली जीत अन्याय के खिलाफ संघर्ष में ही निहित है।
संताल परगना का इतिहास वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है और इसका अपना विशिष्ट सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है। यह क्षेत्र आदिवासी अस्मिताए संघर्ष और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। 1855 के हूल के जरिए सिदो-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो जैसे महानायकों ने अंग्रेजों के खिलाफ जो विद्रोह किया था, वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
संताल परगना स्थापना दिवस की उपेक्षा पर लेखक का विचार
झारखंड राज्य के गठन के पीछे मुख्य तर्क आदिवासी हित और पहचान को संरक्षित करना था। ऐसे में संताल परगना की ऐतिहासिक भूमिका को नज़रअंदाज करना उचित नहीं है। हूल दिवस, 30 जून की तरह संताल परगना स्थापना दिवस को भी सरकारी मान्यता दी जानी चाहिए। यह क्षेत्र के आदिवासियों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान को सशक्त बनाएगा। चूंकि, संताल परगना का योगदान केवल झारखंड के लिए ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए भी यह दिन महत्वपूर्ण है, इसलिए केंद्र सरकार को इसे राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देनी चाहिए। इसे राष्ट्रीय पर्व के रूप में मान्यता देने से आदिवासी समुदाय के इतिहास और संस्कृति को व्यापक पहचान मिलेगी।
संताल परगना का इतिहास केवल हूल क्रांति तक सीमित नहीं है। इसका सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान भी उल्लेखनीय है। यह क्षेत्र झारखंड के आदिवासी समाज के गौरव का प्रतीक है। यदि स्थापना दिवस को मान्यता मिलती है तो क्षेत्र में शिक्षा, पर्यटन और सांस्कृतिक विकास के लिए नई संभावनाएं भी पैदा होंगी। झारखंड के गठन के बाद से अधिकांश मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से ही रहे हैं, फिर भी संताल परगना को वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार है। यह मुद्दा राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि आदिवासी समुदाय की अस्मिता से जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं।
क्या किया जा सकता है?
स्थानीय संगठनों और नागरिक समाज को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि वे संताल परगना स्थापना दिवस को मान्यता दें। इसके महत्व पर जनता के बीच जागरूकता फैलाई जानी चाहिए ताकि लोग अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के लिए आवाज उठा सकें। स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में संताल परगना के इतिहास को शामिल करने की मांग की जा सकती है ताकि नई पीढ़ी इसके महत्व को समझ सके।
संताल परगना का इतिहास झारखंड और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए गौरवशाली और प्रेरणादायक है। झारखंड सरकार और केंद्र सरकार को इसके महत्व को स्वीकार कर इसे मान्यता देनी चाहिए। इससे न केवल आदिवासी समुदाय का गौरव बढ़ेगा, बल्कि राष्ट्र की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत को भी सम्मान मिलेगा।
(लेखक दुमका के निवासी है और संताल परगना क्षेत्र के प्रमुख सामाजिक व आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता हैं।)