पहाड़ बचाने का कानून अब जरूरी, फिर वैसी नहीं बन सकती है।
जलपुरुष राजेंद्र सिंह
हम सभी को यह समझना होगा कि खनन से नष्ट हुए पहाड़ कभी पुनर्जीवित नहीं हो सकते। 20 नवंबर 2025 का उच्चतम न्यायालय का निर्णय अरावली पहाड़ों को खनन की छूट देकर उन्हें स्थायी रूप से नष्ट कर देगा, और उन्हें पहले जैसी स्थिति में लौटाना असंभव होगा। हम नदियों और तालाबों को तो पुनर्जीवित कर सकते हैं, उन्हें पहले जैसा बना सकते हैं, लेकिन पहाड़ों को किसी भी तरह से वैसा ही पुनर्निर्माण करना प्रकृति की शक्ति से परे है। मानव की मशीनों से प्रकृति को इस तरह नष्ट करना अंततः स्वयं मानव जाति का विनाश ही है। अपनी आंखों के सामने इस महाविस्फोट को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
अरावली के संरक्षण के लिए अभी तक कोई ठोस कानून नहीं बना है। अरावली पर उगने वाले जंगलों की रक्षा के लिए कानून तो बन गए, लेकिन मूल पहाड़ों को वैसा का वैसा बनाए रखने वाला कानून आज सबसे बड़ी जरूरत है। 7 मई 1992 में अरावली संरक्षण के लिए कानून बना था, लेकिन वह केवल अलवर-गुड़गांव क्षेत्र तक सीमित रह गया। बाद में पूरी अरावली के लिए उच्च और उच्चतम न्यायालय ने मजबूत निर्णय दिए थे। खनन माफिया इनके खिलाफ लगातार संघर्ष करते रहे और आखिरकार 20 नवंबर 2025 को अपनी मनमानी करा ली।
यदि ऐसा होता रहा तो यह ठीक वैसे ही होगा जैसे किसी अच्छे व्यक्ति की सुरक्षा की अनदेखी कर दी जाए। जंगलों को बचाना है तो सबसे पहले पहाड़ों को बचाना जरूरी है। पहाड़ों की रक्षा के लिए कानून अब उच्चतम न्यायालय ही बनवाएगा। अब तक न्यायपालिका ने वन्यजीव संरक्षण कानूनों का सहारा लेकर खनन रोका था, लेकिन अब पहाड़ों के लिए अलग कानून की आवश्यकता है। आज न्यायपालिका औद्योगिक दबाव में आकर संवेदनशील क्षेत्रों में भी खनन की अनुमति दे रही है, अरावली में यही हुआ है। सम्माननीय न्यायपालिका ने विभागों की शक्तियों के अनुरूप निर्णय लेकर अरावली पहाड़ों के लिए पहाड़-विरोधी परिभाषा दे दी है। यह काम राजनेताओं, अधिकारियों और उद्योगपतियों के गठजोड़ ने करवाया है।
हम इस परिभाषा को उचित नहीं मानते और हर जगह पहाड़ की आवाज बन रहे हैं, लेकिन सुनने वाले मौन हैं। न्यायपालिका ने जिन्हें जिम्मेदारी सौंपी है, वे पर्यावरण, जलवायु और वनों के रक्षक हैं, पहाड़ों के नहीं। इसलिए वे सभी प्रसन्न हैं। यहां तो ‘बाढ़ ही खेत को खा रही है’ वाली स्थिति है। पहले जंगल काटे जाएंगे, तो 20 नवंबर के निर्णय के आधार पर अधिकारी, नेता और व्यापारी का गठजोड़ पूरी तरह सुरक्षित रहेगा। ऐसे में वन और वन्यजीव संरक्षण कानून कुछ नहीं बचा पाएंगे। वन्यजीवों और पर्वतों को नष्ट करने वाले पोषित होते रहेंगे। अरावली के विनाश में ‘चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का’ वाली कहावत पूरी तरह लागू हो जाएगी। अब सब कुछ जलवायु परिवर्तन और वन विभाग के हाथों में आ गया है। बचाने वाले को ही नष्ट करने का अधिकार दे दिया गया है।

Arbuda mountains of the Aravalli Range as viewed from Guru Shikhar, highest point in Rajasthan.
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इसलिए सम्माननीय उच्चतम न्यायालय को अपने निर्णय पर शीघ्र पुनर्विचार करके अपना सम्मान बढ़ाना चाहिए। हमें अपनी न्यायपालिका पर पूरा विश्वास है। उस विश्वास को बनाए रखने का अब उपयुक्त समय है, और हमें विश्वास है कि उच्चतम न्यायालय ऐसा जरूर करेगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो विश्व स्तर पर हमारी न्यायपालिका को आघात पहुंच सकता है। हम जानते हैं कि हमारी न्यायपालिका ने हमेशा विश्व में न्याय का गौरव बढ़ाया है। पुरातन विरासत अरावली को बचाने में भी वह ऐसा ही करेगी। हमारी संस्कृति और प्रकृति दोनों में अरावली निहित है। न्यायालय और सरकार मिलकर इसे जरूर बचाएंगी। सरकार ने विश्व स्तर पर अरावली रक्षा की घोषणाएं की हैं। अरावली बचाना सरकार की जिम्मेदारी और जनता का कर्तव्य है। लोकतंत्र में जन दबाव से ही सरकारी प्रयास शुरू होते हैं।
हम सभी अरावली बचाने के लिए अपना कर्तव्य मानकर एकजुट हो जाएं। पहाड़ों की रक्षा के लिए कानून बनवाएं। सबसे पहले उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करें। अरावली साक्षरता अभियान चलाएं, विद्यार्थियों, शिक्षकों और किसानों को चेतना यात्राओं से जोड़ें। भूगर्भ विशेषज्ञ आगे आएं और न्यायालय तथा सरकार को अरावली की सच्ची परिभाषा समझाएं। खनन स्थलों पर रामायण पाठ, पर्यावरण यज्ञ, सत्याग्रह, मार्च, धरना, उपवास जैसे अहिंसक तरीके अपनाएं। ‘अरावली विरासत जन अभियान’ को तेज करें। यह अभियान दलगत राजनीति से ऊपर है। कोई राजनीतिक दल इसे प्रभावित न करे, केवल सहयोग करें। सहयोग करने वाले सभी दलों का अभियान स्वागत और सम्मान करेगा।
यह अभियान सामूहिक नेतृत्व में सभी को बराबर अवसर देता है। इसे मजबूत बनाने के लिए सभी बराबर प्रयास करें – लेखन, सामाजिक कार्य, शिक्षण, परिसंवाद और श्रृंखला आयोजन से। प्रकृति प्रदत्त विरासत बचाते समय लाभ-हानि न देखें, केवल शुभ देखें। शुभ सभी के लिए समान हितकारी है। इसका अर्थ है सदैव नित्य प्राकृतिक नूतन निर्माण की प्रक्रिया, जहां कुछ भी नष्ट नहीं होता। प्रकृति और पहाड़ ही निरंतर निर्माण करते रहते हैं।
अरावली में खनन न होने से यह पर्वत श्रृंखला अन्न, जल, चारा, ईंधन और जलवायु सुरक्षा प्रदान करती रहेगी। खनन केवल कुछ लोगों के लाभ के लिए है, जो सभी के शुभ निर्माण को रोक देगा। यह पंचमहाभूतों की निर्माण शक्ति को नष्ट कर सकता है। इसलिए हम सभी भारतीय आस्था और पर्यावरण रक्षा के लिए एकजुट हो जाएं। यह भगवान का काम है। इसकी अनदेखी सृष्टि और जीवन को चुनौतियां देगी। अगली पीढ़ी हमें क्षमा नहीं करेगी। वे कहेंगी कि पुरखों से मिले पहाड़ और पानी आपने हमारे लिए नहीं बचाए, अपनी आंखों के सामने सब नष्ट करा दिया।
हमारी कहावत है कि जैसा मिला, वैसा ही अगली पीढ़ी को सौंपकर मोक्ष की ओर जाना चाहिए। पुरखों की विरासत नष्ट होते देख चुप रहना पाप है। अरावली विरासत जन अभियान शुभ के लिए है, खनन लाभ के लिए। शुभ सनातन है, लाभ क्षणिक। इस चिंता को छोड़ शुभ कार्य में सभी को जोड़ें। अपनी रुचि, क्षमता और दक्षता के अनुसार इसमें योगदान दें। यदि अब नहीं किया तो अगली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी।
80-90 के दशक में भी अरावली की बेटे-बेटियों ने इसे बचाया था। अब फिर एकजुट होकर बचाएं। सभी अपनी योग्यता से आज से ही लग जाएं। अरावली हमारी विरासत है, इसे बचाना कर्तव्य। खनन के बाद अरावली पहले जैसी नहीं बन सकती। यह भारत की विरासत है, इसे वैसा ही बनाए रखें। अरावली के बेटे-बेटियां संगठित होकर इसे नष्ट न होने दें। विरासत बचाना हमारा और राज्य का संवैधानिक कर्तव्य व अधिकार है। संविधान प्रदत्त शक्तियों से उच्चतम न्यायालय से प्रार्थना है कि निर्णय पर पुनर्विचार कर भारत की पुरातन विरासत अरावली को बचाएं।