अहमदाबाद के कामगार : 12 घंटे की ड्यूटी, 400 से 700 रुपये की दिहाड़ी, फिर भी संतोष का भाव

अहमदाबाद का नारोल एक औद्योगिक क्षेत्र है, जहां कई तरह के छोटे-बड़े कारखाने व वर्कशॉप हैं। यहां के श्रमिकों की औसत मजदूरी 400 से 700 रुपये प्रतिदिन है और काम 12 घंटे का। इसके बावजूद न कोई तीखा असंतोष है और न ही विरोध। यह स्थिति भारत में कमजोर पड़ चुके श्रमिक संगठनों व गुम होती मजदूरों की आवाज की भी तस्दीक करती है। यहां काम करने वाले श्रमिक अधिकतर उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार व गुजरात के आसपास के इलाके व जिलों के हैं। इस इलाके में प्रवासी श्रमिकों के मद्देनजर कई जगह लंबी दूरी की बस सेवाओं का बोर्ड, चाय का नुक्कड़ व ढाबे नजर आते हैं।

राहुल सिंह

एक यात्रा अनुभव

इस साल नवंबर के तीसरे सप्ताह में मैं गुजरात के सबसे बड़े शहर अहमदाबाद की यात्रा पर था। इस यात्रा के दौरान कुछ वक्त निकाल कर अहमदाबाद के औद्योगिक इलाके घूमने का ख्याल आया। अहमदाबाद व गुजरात के कई अन्य शहर अपनी औद्योगिक इकाइयों और वहां बड़ी संख्या में काम के लिए उत्तर और पूर्वी भारत से आने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए जाना जाता है। सालों से बिहार, बंगाल, झारखंड, मध्यप्रदेश के कामगारों से मैं यह सुनता आया हूँ, “हम गुजरात में फैक्टरी में काम करते हैं”।

मैं एक दोपहर अहमदबाद के नारोल इलाके में पहुंचा। नारोल अहमदाबाद में छोटे-मंझोले उद्योगों का एक प्रमुख केंद्र है। यहां लोहे, कपड़े, मशीनरी काम से जुड़ी व कई अन्य प्रकार की कई इकाइयां हैं। अहमदाबाद की रेपिड बस से नारोल सर्किल पर उतरते ही सड़की की दूसरी ओर चाय की एक दुकान के सामने एक बोर्ड दिखता है, जो एक लंबी दूरी की यात्री बस सेवा के बारे में बताता है।

इस बोर्ड में अहमदाबार से कानपुर और बनारस तक की बसों के चलने की जानकारी है। अहमदाबाद से महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश व राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों तक ही नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश के विभिन्न शहरों के लिए बस सेवा उपलब्ध है। मेरी रुचि कथित रूप से सबसे अधिक प्रवासन वाले राज्य बिहार को लेकर थी।

बस के बुकिंग काउंटर पर तैनात लड़के ने पूछने पर बताया कि यहां से बिहार तो बस नहीं जाती है, लेकिन उत्तरप्रदेश के बनारस और गोरखपुर बसें जाती हैं। उसने बताया कि बस यहां से सुबह खुलती है और अगले दिन शाम में बनारस पहुंचती है। यानी डेढ दिन या लगभग 36 घंटे का सफर। बस काउंटर वाले ने बताया कि यहां से कामगारों का आना-जाना लगातार जारी रहता है, लेकिन दिवाली की छुट्टियों में वापस अपने शहर व गांव जाने वालों की संख्या अधिक रहती है और उसमें कुछ कुछ दिनों के बाद तो कुछ खेती के बाद लौटते हैं।

नारोल स्थित एक इंडस्ट्रीयल पार्क। इस संकरे से रास्ते के अंदर छोटे-बड़े कई कारखाने हैं, जिसमें कपड़े बनाने, कपड़े सिलाई, मशीनरी वर्क आदि शामिल हैं। ऐसे अनेकों पार्क व तयशुदा औद्योगिक इलाके नारोल में हैं।

श्रमिकों के काम के घंटे

इस इलाके के कारखानों व छोटे-मंझोले वर्कशॉप में काम करने वाले कई मजूदरों ने बातचीत में बताया कि यहां ड्यूटी 12 घंटे की करनी होती है। लोहे के चदरे की छतें बनाने वाले एक वर्कशॉप में काम करने वाले एक श्रमिक एहशान ने बताया कि यहां मेहनत का काम है और यह काम हर किसी को नहीं आता तो काम के लिए कारखाने की मालिक हम पर निर्भर हैं और हम अपने रोजगार के लिए उन पर निर्भर हैं। हालांकि, वे हंसते हुए कहते हैं, इस धंधे में हम भी रोते हैं और सेठ भी रोता है।

लोहे के चदरे की छतें बनाने वाले वर्कशॉप के कर्मचारी जो 12 घंटे की कड़ी मेहनत करते हैं।

लोहे के प्रोडक्ट बनाने वाले एक अन्य वर्कशॉप में काम करने वाले मोहम्मद कसम ने बताया कि हम सुबह सात बजे से शाम सात बजे तक यहां काम करते हैं और हमारी मजदूरी 700 रुपये हर दिन की तय है। इस सवाल पर कि क्या गर्मियों के महीनों में अधिक तापमान होने पर भी यह काम होता है, वे कहते हैं – क्या गर्मियों में खाना नहीं चाहिए? वे कहते हैं कि कोई मौसम हो यह काम चालू रहता है यहां।

मोहम्मद कसम व उनके अन्य साथी वर्कशॉप में काम करते हुए।

यहां कपड़ों से जुड़ी इकाइयों में महिलाएं भी रोजगार पाती हैं। खासकर रेडिमेड कपड़े तैयार करने के काम में। ऐसे ही एक कारखाने के मैनेजर ने बताया कि यहां 25-30 महिलाएं काम करती हैं। हालांकि उन्होंने काम की शर्ताें व घंटों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया और कहा मेरे सीनियर आएंगे तो वे बताएंगे।

लोहे के काम वाले एक वर्कशॉप का दृश्य।

नारोल के एक बुजुर्ग व्यक्ति मो इब्राहिम ने कहा, “पहले यहां मजदूर आठ घंटे ही काम करते थे, लेकिन पिछले डेढ-दो दशक से श्रमिक यहां 12 घंटे की ड्यूटी करते हैं और औसतन एक श्रमिक की मजदूरी 400 से 700 रुपये के बीच होती है”। वे कहते हैं यह बहुत अधिक श्रम है और सही नहीं है, लेकिन श्रमिकों के पास विकल्प नहीं है। वे कहते हैं यहां अधिकतर उत्तरप्रदेश के श्रमिक हैं और राजस्थान, बिहार व मध्यप्रदेश के कामगार भी हैं।

जहां जैसा कामकाज या माहौल होता है, वहां उसी के अनुरूप एक इकोसिस्टम विकसित हो जाता है। वही, हाल नारोल इलाके का भी है। यहां की कई चाय दुकानों पर लंबी दूरी के बसों के विज्ञापन तो दिखते ही हैं, साथ ही आसपास हाइवे के किनारे कुछ ऐसे ढाबे या होटल हैं, जिसके मुख्य ग्राहक प्रवासी श्रमिक हैं।

किसान ढाबा का एक दृश्य, जिसके अधिकतर ग्राहक प्रवासी श्रमिक हैं। दिलचस्प बात यह कि इस ढाबे के मालिक कोई और हैं, जबकि इसका नियमित संचालन भी राजस्थान के प्रवासी श्रमिक ही करते हैं।

ऐसे ही एक ढाबे में हम पहुंचे, जिसका नाम किसान ढाबा है। इस ढाबे के मालिक कोई और हैं और इसके संचालक कोई और। ढाबे के संचालक हरीश भाई ने बताया कि वे राजस्थान के बाड़मेर जिले के रहने वाले हैं। उन्होंने कहा, “इस ढाबे के मालिक दो लोग हैं और मैं इसे चलाता हूँ और मुझे इसके लिए 15 हजार रुपये महीने की तनख्वाह मिलती है”। उन्होंने बताया कि ढाबे के चार कर्मचारी राजस्थान के हैं और एक उत्तरप्रदेश के हैं।

किसान ढाबे में टंगे इस बोर्ड से पता चलता है कि इसके वित्त पोषण के लिए सरकार की छोटे कारोबार के लिए वित्तीय सहायता योजनाओं का लाभ लिया गया है।

हरीश ने बताया कि इस इलाके में हमारे मुख्य ग्राहक बाहर से यहां काम करने वाले श्रमिक हैं और दूसरे लोग भी यहां खाना खाने आते हैं। उन्होंने बताया कि राजस्थान व उत्तरप्रदेश के श्रमिक यहां अधिक हैं। गुजरात के विभिन्न जिलों के लोकल श्रमिक भी हैं और नेपाल व बिहार के लोग भी यहां काम करते हैं।

हरीश ने अपने ढाबे के मालिक की तारीफ की और कहा कि वे हमें समय पर तनख्वाह देते हैं और इसे ईमानदारी से चलाते हैं।

किसान ढाबे के संचालक हरीश, वे खुद एक प्रवासी श्रमिक हैं और इस ढाबे के मालिक कोई और हैं।

किसान ढाबे पर रात में खाना खाने पहुंचे मध्यप्रदेश के उज्जैन के मो सलमान ने कहा कि यहां खाना अच्छा मिलता है, इसलिए हम खाने आते हैं। सलमान ने कहा कि वे 15 साल से यहां काम कर कर रहे हैं और जिस सेठ के पास अभी काम करते हैं, उसके पास 10 सालों से काम कर रहे हैं। सलमान के अनुसार, उनकी प्रतिदिन की मजदूरी 700 रुपये है और सेठ का थोक में खाना सप्लाई करने का कारोबार है। वे भी अपने नियोक्ता की तारीफ करते हुए कहते हैं, “हमारा सेठ अजय भाई अच्छा आदमी है, तभी उनके पास 10 साल से काम कर रहे हैं, हमारा ख्याल रखते हैं, हमारे करीब 25 लोग काम करने वाले हैं और उनके लिए उन्होंने दो रूम भी रहने के लिए किराये पर लेकर रखा है”।

मध्यप्रदेश के उज्जैन मो सलमान, जिनसे किसान ढाबे पर मुलाकात हुई।

हरीश हो या सलमान, मालिक के प्रति उनकी संतुष्टि का भाव यह अहसास कराता है कि यहां के कारोबारी अपने कर्मचारियों को भरसक संतुष्ट रखने का प्रयास करते हैं ताकि वे उनके पास टिके रहें। भले कि काम के घंटे व शर्तें कड़ी क्यों न हो, आखिरकार इस बहाने उन्हें रोजगार व आर्थिक सुरक्षा जो मिलती है।

सड़क के किनारे स्थित किसान ढाबा। (नीचे -)

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