अतिथि की कलम से: जलवायु आपदा की पहली पीड़ित महिला तो उन्हें अपने लेखन के केंद्र में रखें

क्लाइमेट ईस्ट ने आज एक साल पूरा कर लिया। ऐसे में एक महिला रिसर्चर – जिनके पास जमीनी कामकाज का अनुभव है – से यह समझना-जानना जरूरी है कि वे महिलाओं को केंद्र में रख कर क्लाइमेट ईस्ट के पिछले एक साल के कामकाज को कैसे देखती हैं, उसमें क्या सुधार की जरूरत महसूस करती हैं और पर्यावरण व ग्रामीण पत्रकारिता में महिलाओं को क्यों और कैसे केंद्र में लाया जाए।

पूजा कुमारी, स्वतंत्र शोधार्थी

क्लाइमेट ईस्ट के एक साल पूरा होने पर उसकी पूरी टीम को बधाई। एक पाठक और रिसर्चर होने के नाते मैं इस वेबसाइट को फॉलो कर रही हूं। इस एक साल में इस पोर्टल पर पर्यावरण के मुद्दों पर अलग-अलग लेख, कहानियां और स्थानीयता को जोड़ते हुए पर्यावरण और उसके प्रभाव पर जो कामकाज किया गया है, वह सराहनीय है। मौजूदा मुद्दों को आलेखित करने के साथ जो व्यक्ति उस उस खास परिस्थिति में जूझ रहा है, उसकी बात उसके ही शब्दों में रखने की कोशिश करते हुए यह पोर्टल काम कर रहा है। इन्हें हम कम्युनिटी जर्नलिस्ट या समुदाय से आने वाले पत्रकार या संवाददाता या सूचनादाता के रूप में जानते हैं, संबोधित करते हैं।

आज हम पर्यावरण और उसके बदलते स्वरूप पर गौर करें तो पाते हैं कि यह अपने भयंकर स्वरूप में आने पर सबसे अधिक महिलााओं, बच्चों व बुजुर्गाें को प्रभावित करता है। मुझे ऐसा लगता है कि क्लाइमेट ईस्ट टीम को इन मुद्दों पर और भी गहराई से चर्चा करने व लिखने की जरूरत है। आज पर्यावरण में बदलाव की मार शहर से लेकर सुदूर गांवों में रहने वाले लोग भुगत रहे हैं। इनमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे शामिल हैं जो तुरंत एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर प्रवास नहीं कर सकते। भले वह जगह ग्रामीण क्षेत्र हो, आदिवासी क्षेत्र हो या फिर सूखा प्रभावित, बाढ़ प्रभावित, खनन या खेती-बाड़ी से जुड़ा हो। आप किसी भी क्षेत्र विशेष के आंकड़े देखेंगे तो आपदाओं की सबसे अधिक संख्या में महिलाओं को शिकार पाएंगे।

ऐसे जलवायु आघातीय क्षेत्र से पलायन कर अधिकतर पुरुष सदस्य काम की तलाश में बाहर निकल जाते हैं, जिससे उस पूरे परिवार की जिम्मेदारी अकेले महिला सदस्यों पर आ जाती है। इसके कारण पर्यावरण में होने वाले बदलावों का अधिकतम प्रभाव उन पर साफ दिखाई देता है।

ओडिशा के नियमगिरि में वर्ष 2025 के पर्यावरण दिवस के दिन बॉक्साइट खनन के विरुद्ध जुटी महिलाएं।

सदियों से महिलाएं न केवल घर में काम देखती रही हैं बल्कि अकेले ही घर के काम, बच्चों को संभालना, अपने पशुओं के लिए चारे का प्रबंध करना, खेती करने और किसी समस्या के आने पर उसको सुलझाने का काम भी करती हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई महिला अपने घर के पुरुष सदस्य के साथ मिलकर खेत में काम करती है तो उसे कम समय तक पानी या धूप में रह कर काम करना पड़ता है, परंतु जब वही काम वह अकेले करती है तो उसे अधिक समय या दिन लगता है। इससे उसे मौसम की मार अधिक वक्त तक झेलनी होती है। अत्यधिक ग्रामीण पलायन वाले पूर्वी व कई अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में यह बात आम है। इससे उस महिला की सेहत प्रभावित होती है और समय पर भोजन नहीं करने, पौष्टिक भोजन नही ंमिलने से उसके स्वास्थ्य में एनीमिया के गंभीर मामले सहित अन्य स्वास्थ्यगत दिक्कतें सामने आती हैं।

इतना ही नहीं, मौसम के चक्र में परिवर्तन से भी उनके लिए गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं सामने आती हैं। जैसे अधिक देर तक पानी में रह कर धान की बुआई के दौरान उनके पैरों की उँगलियां कई बार घाव से भर जाती हैं या इसी तरह सूखे की स्थिति में उनको अपने बच्चों के साथ पेयजल की व्यवस्था के लिए भटकना पड़ता है। इसलिए पर्यावरण के प्रभाव से जो तबका सबसे अधिक प्रभावित या पीड़ित होता है, उसके लिए कार्य और बचाव के साथ उनको सबसे अधिक जागरूक करने की जरूरतों की तरफ ध्यान केंद्रित करते हुए लिखे गए लेख और शोध सरकार तक पहुंचने पर आगे नीतियों में बेहतरी देखने को मिल सकती है।

खास कर जब हम कुछ लिखते हैं तो उन महिलाओं से बातचीत कर उनके बारे में, उनके अनुभवों को लिखा जाता है तो इससे कुछ नई जानकारियां वे भी पाती हैं और अपने जीवन में उसे शामिल करती हैं। इसका एक उदाहरण किसान कार्ड बनवाने में उन महिलाओं की भागीदारी को देख सकते हैं जिन्होंने बाढ़ और सूखे से राहत देती इन सुविधाओं को पाने के लिए ब्लॉक ऑफिस जाकर अपने नाम से कार्ड बनवाने का काम किया। बिहार में स्थित मेरे गांव में ऐसी बहुत ही महिलाओं ने यह कार्ड लोगों की बातचीत को सुनकर तथा घर के पुरुषों की गैर-मौजूदगी में भी बनवाया था। कुछ ऐसी भी महिलाएं हैं, जिनके आगे-पीछे कोई नहीं और उन्होंने खुद हर परिस्थिति से लड़कर खुद सिखा। ऐसी ही एक महिला फूलमाला देवी(बदला हुआ नाम) हैैं जो न केवल अपने काम करती हैं, बल्कि आसपास की अन्य महिलाओं को भी ले जाकर उनके काम करवाने में मदद करती हैं। मौजूदा समय में ये महिलाएं अकेली ही चुनाव आयोग द्वारा हो रहे सर्वे फॉर्म को भी न केवल खुद देख रही हैं बल्कि अपने घर के उन सदस्यों की जानकारी भी बीएलओ को साझा कर रही हैं जो रोजगार या पढ़ाई के लिए राज्य से बाहर हैं।

ये महिलाएं अक्सर सशक्तीकरण के दायरे से बाहर रही हैं। जबकि धरातल पर अपने आप में अपने लिए फैसले लेने से लेकर उनको पूरा करने से सीखते हुए आगे बढ़ी हैं। हमें और क्लाइमेट ईस्ट को जरूरत है कि उन सभी महिलाओं को उत्साहवर्धक तरीके से सेलिब्रेट करते हुए उनके पक्ष और अपने पारिस्थितिकी तंत्र से जूझते हुए उनके निरंतर आगे बढ़ते रहने को अपने पर्यावर्णीय शोध और लेखों में शामिल करें, ताकि यह लाखों महिलाओं को जागरूक भी करता रहे।

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