पलामू में कोयला खनन फिर से शुरू होने से क्यों चिंतित हैं आसपास के ग्रामीण?

झारखंड के सूखाग्रस्त जिले पलामू के पड़वा गांव में राजहरा उत्तर (मध्य और पूर्वी) कोयला ब्लॉक में वाणिज्यिक उत्पादन इस साल फरवरी में फिर से शुरू हो गया। इस परियोजना के प्रभावों को लेकर स्थानीय समुदाय को कई चिंताएं हैं, जिसमें एक सबसे प्रमुख पानी से जुड़ी चिंता है।

अश्विनी कुमार शुक्ला

एक दशक से ज्यादा समय से बंद झारखंड में राजहरा उत्तर कोयला खदान अब निजी स्वामित्व में फिर से खोल दी गई है। इसके शुरू होने से स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ने की उम्मीद की जा रही है, लेकिन इसने पर्यावरण को नुकसान और स्थानीय समुदाय पर लंबी अवधि के दुष्प्रभाव को लेकर गहरी चिंताएं भी जगा दी हैं।

झारखंड के सूखाग्रस्त पलामू जिले के पड़वा गांव में राजहरा उत्तर (मध्य और पूर्वी) कोयला ब्लॉक में वाणिज्यिक उत्पादन इस साल फरवरी में फिर से शुरू हो गया। सरकार ने 2021 में इस ब्लॉक को फेयरमाइन कार्बन्स प्राइवेट लिमिटेड को आवंटित किया था। यह परियोजना 116 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में फैली हुई है। इसकी लागत 1.26 अरब रुपये है। इससे 22 सालों में 1.5 करोड़ टन से ज्यादा कोयला निकलने की उम्मीद है।

राजहरा उत्तर भारत की सबसे पुरानी खदानों में से एक है। यहां आजादी से पहले खनन शुरू हुआ था और 1973 में इसका राष्ट्रीयकरण किया गया था। शुरू में यह भूमिगत खदान थी, लेकिन बाद में यहां से अच्छी गुणवत्ता का कोयला निकालने के लिए इसे ओपन-कास्ट बना दिया गया। यहां से 2010 तक कोयला उत्पादन होता रहा, लेकिन उसके बाद सुरक्षा चिंताओं और पर्यावरण मंज़ूरी से संबंधित मुद्दों की चलते इसे बंद कर दिया गया।

रांची विश्वविद्यालय में भूविज्ञान विभाग के सहायक प्रोफेसर नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं, “चाहे आप इस क्षेत्र को झारखंड कहें या संयुक्त बिहार-झारखंड, राजहरा अंग्रेजों द्वारा उनके शासन के दौरान खोजी गई पहली खदान है।” “चाहे एन्थ्रेसाइट हो या बिटुमिनस, यहां का कोयला बेहतर गुणवत्ता का है। पूर्व में, खनन भूमिगत किया जाता था, जहां कोयला की तह झुकी हुई थी। अब, जब तह क्षैतिज है, तो ओपन कास्ट माइनिंग का इस्तेमाल किया जा रहा है।“

साल 2010 में खदान बंद होने का तात्कालिक कारण बाढ़ थी, लेकिन स्थानीय लोग लंबे समय से इस क्षेत्र में खनन का विरोध कर रहे थे।

पड़वा गांव के 70 वर्षीय निवासी रामजी राम याद करते हैं कि किस तरह तब भूजल नीचे चला गया था। इससे खेती खराब हो गई, जो कभी इस क्षेत्र की रीढ़ थी। अब, जब उनके दरवाजे के ठीक सामने वाणिज्यिक खनन फिर से शुरू हो गया है, तो चिंताएं बढ़ रही हैं। राम कहते हैं, “पहले, हमारे कुएं और पानी के स्रोत कभी नहीं सूखते थे, लेकिन 1970 के दशक में जब से खुले में खनन शुरू हुआ, इस क्षेत्र का सारा पानी धीरे-धीरे सूख गया है।” सूखे हैंडपंप की ओर इशारा करते हुए राम कहते हैं, “अगर खनन शुरू होता है, तो हमारी नदियां सूख जाएंगी और जमीन बंजर हो जाएंगी।” रामजी राम अपने कुएं की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “जैसे ही वे पानी निकालना शुरू करेंगे, यह सूख जाएगा।” बीस से ज्यादा परिवार इसी कुएं से पानी लेकर अपना गुजर-बसर करते हैं।

राजहरा कोयला खदान की ओर इशारा करता हुआ साइनबोर्ड। एक दशक से ज्यादा समय तक बंद रहने के बाद, झारखंड के पलामू जिले में राजहरा उत्तर से कोयला खनन फिर शुरू हो गया है। तस्वीर – अश्विनी कुमार\ मोंगाबे।

खुले में खनन में बड़े पैमाने पर मशीनों का इस्तेमाल होता है। इससे अक्सर आसपास के परिदृश्य बदल जाते हैं। आवास खत्म हो जाते हैं और धूल व ध्वनि प्रदूषण में बढ़ोतरी होती है। इसके विपरीत, हालांकि भूमिगत खनन का पर्यावरण पर कम स्पष्ट दुष्प्रभाव पड़ता है, लेकिन यह ज्यादा जटिल और महंगा है। 

लंबे वक्त तक इस क्षेत्र में खनन के दुष्प्रभावों का अध्ययन करने वाले प्रियदर्शी कहते हैं, “राजहरा या ज्यादा व्यापक रूप से छोटा नागपुर पठार कठोर, बदलने वाली चट्टान से बना है। इस क्षेत्र में भूजल सिर्फ चट्टानों की दरारों, जोड़ों में मौजूद है।” वे आगे बताते हैं, “विस्फोट के दौरान, कंपन इन दरारों और जोड़ों को बंद या स्थानांतरित कर सकता है, जिससे भूजल या तो गायब हो सकता है या दूर जा सकता है। कई खुले खनन कामों में, भूजल सबसे पहले प्रभावित होने वाला संसाधन है। विस्फोट में इस्तेमाल किए जाने वाले ताकतवर विस्फोटक कुओं के पानी को सुखा सकते हैं और भूमिगत जल में व्यवधान पैदा कर सकते हैं।“

खनन के खिलाफ समुदाय का विरोध नई बात नहीं है। पड़वा गांव की 58 वर्षीय बिंदु देवी कहती हैं, “हमने खदान बंद होने से पहले (2010 में) भी कई बार विरोध किया था।” 60 वर्षीय लालू राम पिछले विनाश को याद करते हुए कहते हैं, “जब सभी के घरों को नुकसान होने लगा, तो उन्होंने विरोध किया। इससे पूरे घर हिल जाते थे। देखिए, यहां जो कुछ भी आप देख रहे हैं, वह सब इसी वजह से मरम्मत किया हुआ है, क्योंकि पूरा गांव लगभग ढह गया था।” 

विरोध-प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाले लालू राम कहते हैं, “जब पानी सूखने लगा और घर ढहने लगे, तो गांव वाले एकजुट होकर विरोध करने लगे। 2010 में सदाबाह नदी में बाढ़ आने के बाद खदान बंद कर दिया गया, जिससे खनन क्षेत्र में काम करना असंभव हो गया।”

सुरक्षा और पर्यावरण संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए खान सुरक्षा महानिदेशालय (डीजीएमएस) ने खनन से जुड़े सभी कामों को रोक देने का आदेश दिया था। हालांकि पानी निकालने के कामों की अनुमति थी। और यही वह समय था जब विरोध और भी तेज हो गया। लालू राम कहते हैं, “वे पानी को बहाने के लिए भारी पंपों का इस्तेमाल कर रहे थे। गांव के सभी हैंडपंप और कुएं एक के बाद एक सूखने लगे। फिर हमने विरोध किया और लड़ाई लड़ी, यहां तक ​​कि स्थानीय विधायक और सांसद भी हमारे समर्थन में आ गए।”

अब डेढ़ दशक से ज्यादा समय बाद इस क्षेत्र में खनन फिर से शुरू हो गया है। फेयरमाइन कार्बन्स प्राइवेट लिमिटेड को आवंटित खदानों में खनन शुरू हो चुका है। इस बीच, सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल) को पर्यावरण मंजूरी मिल गई है, लेकिन अभी तक खनन फिर से शुरू नहीं हुआ है।

खनन फिर से शुरू होने के साथ ही यहां के लोगों को ब्लास्टिंग से लगने वाले झटकों की वापसी का भी डर सता रहा है, जो कभी घरों में दरार डाल देते थे। मरम्मत की गई दरारों की ओर इशारा करते हुए बिंदु देवी कहती हैं, “ब्लास्टिंग से बहुत नुकसान होता है!” वह अपनी चिंता व्यक्त करती हैं, “जब 2010 से पहले ब्लास्टिंग होती थी, तो कोयले के टुकड़े एक किलोमीटर दूर तक उड़कर हमारे घरों पर गिरते थे। अब ब्लास्टिंग बहुत नजदीक हो रही है और इससे घर पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाएंगे।”

नदी पर असर

गांव के लोग खनन से स्थानीय नदियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर भी चिंतित हैं। पहले सीसीएल की खदानें सदाबाह नदी के दोनों किनारों पर चलती थीं। अब फेयरमाइन कार्बन्स प्राइवेट लिमिटेड ने उसी क्षेत्र में कोयला निकालना शुरू कर दिया है।

उत्तरी कोयल की जीवनरेखा और सहायक नदी सदाबाह अब मुश्किल से बह पाती है। गांव वाले इसके सूखने के लिए पिछले खनन को जिम्मेदार ठहराते हैं। बिंदु देवी कहती हैं, “जब से खनन शुरू हुआ है, नदी में पानी कम हो गया है।” वह अपने कुएं की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “अब जब खनन शुरू हो गया है, तो जैसे ही पानी कम होने लगेगा, यह कुआं सूख जाएगा।”

पर्यावरण मंजूरी से क्या पता चला?

सीसीएल की राजहरा ओपन कास्ट परियोजना के लिए 2019 की पर्यावरण मंजूरी में कहा गया था कि “कोर जोन में कोई वन क्षेत्र नहीं है”, लेकिन अपारार खास, मुरमा और कोकंस जैसे संरक्षित वनों के पास बफर जोन हैं।

हालांकि, फेयरमाइन कार्बन्स प्राइवेट लिमिटेड को दी गई पर्यावरण मंजूरी में इन जंगलों का जिक्र नहीं किया गया है। हालांकि, पलामू के प्रभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) ने 2021 के पत्र में स्पष्ट किया है कि सबसे नजदीकी आरक्षित/संरक्षित जंगल खदान की जगह से 250 मीटर की दूरी पर है।

प्रियदर्शी कहते हैं, “भले ही खनन के लिए जंगल नहीं काटा जाए, फिर भी इससे प्रदूषण और धूल फैलती है। इसके अलावा, ऊपरी मिट्टी के नष्ट होने से जंगलों पर नकारात्मक असर पड़ता है।”

साल 2022 की पर्यावरण मंजूरी ने खनन के तीसरे साल तक सदाबाह नदी के एक मोड़ को मोड़ने की योजना का भी खुलासा किया। प्रियदर्शी ने चेतावनी देते हुए कहा, “हजारीबाग (झारखंड का एक और जिला) में, हमने देखा है कि नदी के किनारों पर अक्सर अतिक्रमण किया जाता है और कभी-कभी खनन जैसी गतिविधियों के लिए नदी की धारा मोड़ दी जाती है, जिससे नदी के प्रवाह और पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अगर सदाबाह नदी के साथ भी ऐसा ही किया जाता है, तो इससे समस्या और बढ़ सकती है, जिससे नदी सूख सकती है।”

पुनर्वास और मुआवजे को लेकर चिंताएं

जैसे-जैसे खनन फिर से शुरू हो रहा है, ग्रामीणों में अपने भविष्य को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। 75 वर्षीय राम लखन राम कहते हैं, “उन्होंने कोयला निकालना शुरू कर दिया है, लेकिन हमने अभी तक तय नहीं किया है कि हम कहां जाएंगे।”

कंपनी ने नदी के किनारे करीब तीन किलोमीटर दूर पुनर्वास स्थल का प्रस्ताव रखा है, लेकिन ग्रामीणों ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है। ग्रामीणों का आरोप है कि वे अपनी जमीन के लिए उचित मुआवजे की मांग कर रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई समझौता नहीं हुआ है।

राजहरा में सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड द्वारा संचालित खदानों के अवशेष। तस्वीर – अश्विनी कुमार शुक्ला\ मोंगाबे।

राजहरा कोयला खदान के फिर से खुलने को रोजगार बढ़ाने के अवसर के रूप में देखा गया। यह ऐसी संभावना है जिसके कारण स्थानीय जमीन मालिकों को अपनी कीमती जमीन कुर्बान करनी पड़ी। हालांकि, अब कई निवासियों को टूटे हुए वादों और पूरी नहीं हुई उम्मीदों की याद आती है।

ग्रामीणों का दावा है कि 2024 में कंपनी ने उनसे वादा किया था कि उन्हें नौकरियों में प्राथमिकता मिलेगी। फिर भी, अभी तक समुदाय के महज कुछ ही लोगों को ही रोजगार मिला है। 2024 में खनन कंपनी के प्रबंधन से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे लालू राम बैठक में दिए गए आश्वासनों को याद करते हैं, ” उन्होंने अशिक्षितों के लिए हर तीन एकड़ पर एक नौकरी और मैट्रिक पास लोगों के लिए हर दो एकड़ पर एक नौकरी देने का वादा किया था।”

अपने तीन बेटों को नौकरी देने के बदले छह एकड़ जमीन कंपनी को देने का वादा करने वाले लालू राम इस बात को लेकर अनिश्चित हैं कि ये आश्वासन कब पूरे होंगे।

कई स्थानीय लोगों ने भी ऐसी ही चिंताएं जताई हैं। उनका कहना है कि खदान के फिर से खुलने से रोजगार के मामले में कुछ समय के लिए राहत मिल सकती है, लेकिन इससे विस्थापन और पर्यावरण को नुकसान का चक्र फिर से शुरू होने का खतरा है। निवासी रामजी कहते हैं, “गांव में कई युवा, कामकाजी पुरुष हैं, लेकिन उन्होंने (खनन कंपनी ने) बाहरी लोगों को बुला लिया है।” एक अन्य निवासी लाम लखन राम कहते हैं, “वे दावा करते हैं कि वे 8,000 नए रोजगार मुहैया कराएंगे, लेकिन ऐसा लगता है कि ये अवसर हमारे लिए नहीं हैं।” बिंदु देवी मजबूती के साथ कहती हैं, “मैं अपने अधिकारों के लिए लड़ूंगी। अगर उन्हें मेरी जमीन चाहिए, तो उन्हें मुझे भुगतान करना होगा।”

मोंगाबे इंडिया ने फेयरमाइन कार्बन्स से उनका पक्ष जानना चाहा, लेकिन खबर प्रकाशित होने तक कोई जवाब नहीं मिला।

(यह खबर हमने मोंगाबे हिंदी से साभार प्रकाशित की है। इस लिंक को क्लिक कर आप इसे मोंगाबे हिंदी पर जाकर पढ सकते हैं।)

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