कोसी की बाढ़ के खतरे से शहरी इलाके भी अछूते नहीं, नीति पर भी सवाल


सुपौल से राहुल सिंह

सुपौल शहर से करीब चार किमी की दूरी पर कोसी के किनारे बसा है मुंगरार गांव। इस गांव की मनीषा देवी के घर का चूल्हा सितंबर के आखिरी दिनों में आई बाढ़ के बाद चार दिनों तक बिल्कुल नहीं जला। पांचवे दिन मनीषा और उनकी छोटी गोतनी सरिता कुमारी ने अपने चूल्हे की निपाई-पुताई की।

चार अक्टूबर की शाम परिवार ने इस संवाददाता को बताया कि यह चूल्हा अभी इतना गीला है कि अगले दो दिन इसके जलने की उम्मीद और नहीं है। चूल्हे को जल्द सुखाने के लिए उसके अंदर आग जला कर रखी गई थी, ताकि उसकी गर्मी से वह जल्दी सूखे और जलने लायक हो जाये। रसोई भी इस दौरान गीली नज़र आई, जिसमें बैठ कर काम करना और खाना बनाना मुश्किल हो सकता है। इस दौरान घर के पुरुष सदस्य व बच्चे सामने के पक्के बरामदे पर मुरही व चूड़ा जैसा सूखा खाना खाते दिखे।

मुंगरार गांव में कई लोगों के आंगन में एक सप्ताह बाद भी इतनी मात्रा में कीचड़ जमा दिखा।

रबी की फसल बर्बाद होने से निराशा

मनीषा के देवर और सरिता के पति बुच्ची लाल साह 27 वर्ष कहते हैं कि बाढ़ के दौरान हम लोग राहत शिविर के खाना के भरोसे थे। वे कहते हैं, हम लोग आसपास या बाहर जाकर मौसमी मजदूरी करके परिवार चलाते हैं। खेती भी करते हैं। हम चार भाई हैं, दो भाई पशुओं की खरीद-बिक्री का काम करते हैं। वे निराश होकर कहते हैं कि इस बार रबी की फसल भी नहीं होगी, क्योंकि पानी ज्यादा है और रोपाई तक उसके उतरने की उम्मीद नहीं नज़र आ रही। डूब व कटाव ने खरीफ की खेती को पहले ही नुकसान पहुंचाया है। लेकिन, अब आखिरी मानसून में अत्यधिक बारिश के बढते चलन ने रबी की खेती को भी संकट में डाल दिया है।

बुच्ची कहते हैं, हम चार भाई में हमारे पास एक बीघा ही खेत है और दूसरों की अधबंटाई भी करते हैं। वे कहते हैं चार साल से पानी ज्यादा परेशान कर रहा है। इस परिवार ने बाहर की कमाई से आंगन के एक हिस्से में पक्का घर बनाया है, जो डेढ़-दो फीट की ऊंचाई पर है। हालांकि कोसी के इलाके में इससे भी ज्यादा ऊंचाई पर पक्का मकान बनाने का चलन है ताकि बाढ़ से कुछ हद तक बचाव हो सके।

बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग द्वारा कटाव को रोकने के लिए बोरियों में मिट्टी मोरम ढालकर कटाव वाली जगहों पर डलवाया जाता है।

मुंगरार गांव में दर्जनों ऐसे परिवार हैं जो बाढ़ से हुए नुकसान की कहानियां इस संवाददाता को बताते-सुनाते हैं और चाहते हैं कि उनकी परेशानियों को उनके नाम और पहचान के साथ खबर में दर्ज किया जाये, ताकि अधिकारियों व सरकार तक उनकी बात पहुंच सके।

शहर के पास होने की वजह से शहरी प्रभाव से व पंजाब, दिल्ली, हरियाणा की कमाई से बीते सालों में यहां पक्का मकान बनाने का चलन भी बढ़ा है। हालांकि, अब भी 90 प्रतिशत घर कच्चे ही नजर आये। जिनके पास पैसा हो रहा है, वैसे लोग आंगन के एक हिस्से में छोटी आकृति में भी पक्का मकान बना ले रहे हैं, जिसकी सरंचना और ऊंचाई देखने से यह स्पष्ट समझ आता है कि इसका एक उद्देश्य आरामदायक जिंदगी जीना नहीं बल्कि बाढ व डूब से बचना है। वास्तव में ये जलवायु परिवर्तन के दौर में जलवायु खतरों से बचने के लिए बनायी गई संरचनाएं हैं। जैसा कि इस संवाददाता को एक महिला जितनी देवी ने अपने घर का ऐसा हिस्सा दिखाते हुए कहा कि दो दिन बाढ में इसी पर बच्चों के साथ रहकर समय काटा। हालांकि यह छोटे होने की वजह से उनके अनाज, रसोई व कई दूसरे समान को बचाने के लिए पर्याप्त नहीं होते। ऐसे में जान बच भी जाये तो सामान को बचा माना मुश्किल होता है।

पक्का निर्माण फायदे का निवेश नहीं

हालांकि नदी के बढ़ते कटाव की वजह से कुछ लोग बातचीत के क्रम में पक्का निर्माण को अब सही निवेश नहीं मानते। वे इस बात को लेकर आशंका जताते कि अगले कुछ सालों में यह कटाव उनके घरों तक पहुंच जाएगा।

जितनी देवी, जिन्होंने आंगन के एक हिस्से में छोटे से पक्के मकान में शरण तो ले ली, लेकिन बाढ़ से उनके अनाज व अन्य सामान नहीं बच सके।

मुंगरार की 60 वर्षीया साल की जितनी देवी बताती हैं कि उनके बड़े बेटे दिवंगत अर्जुन साह ने दिल्ली.पंजाब कमा कर परिवार के लिए काफी कुछ किया और एक हिस्से में पक्का मकान भी बनाया, जो इस बाढ़ में बचाव के लिए काम आया। हालांकि उनका अनाज पानी में भीग गया। अब उनके दो और बेटे अर्जुन साह और दिनेश साह परिवार की ज़िम्मेदारी संभालते हैं।

घुरण से आगे सुपौल शहर की ओर बढने पर इस तरह का कटाव का दृश्य दिखता है।

कोसी नव निर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं, नदी से जितनी मात्रा में गाद जमा हो रही है और उससे जितना कटाव हो रहा है, उससे इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता कि आने वाले सालों में पानी सुपौल शहर की ओर बढ़े।

ग्रामीण विजय कुमार साहा कहते हैं कि 2023 में करीब आधा किमी तक कटाव हुआ था, लेकिन इस बार वह ज्यादा बड़े दायरे फैल गया है। वे कहते हैं, पहले तटबंध बना फिर सुरक्षा बांध बनाये गए, जिससे परेशानी बढ़ी। वे अपने अनुभव से कुछ सुझाव भी बातचीत के दौरान रखते हैं। हालांकि आम लोगों के अनुभव से निकले सुझाव व्यवस्था के लिए बहुत ज्यादा महत्व नहीं रखते हैं।

डबहारी-चकला पथ में कटाव के बाद नाव आवागमन का सहारा है।

इस संवाददाता ने अपनी रिपोर्टिंग यात्राओं के दौरान सुपौल शहर के आसपास कई जगह कटाव को पाया। सुपौल ब्लॉक में घुरण गांव से शहर की ओर आगे बढने पर एक बड़ा कटाव हुआ है, जिसके बाद लोग व दो पहिया गाड़ियों को इस पार से उस पार ले जाने के लिए नाव सहारा बनी है। वहां से आगे बढने पर डबहारी-चकला पथ में कटाव दिखा, जिसे युद्ध स्तर पर रात में भी जेसीबी से भरा जा रहा था।

ऐसी स्थितियां शहरों की ओर बाढ़ व कटाव के खतरे को बताती हैं और यह तस्दीक करती हैं कि नीति निर्माताओं को यह सोचना होगा अबतक गांव की शर्त पर जिन शहरों की सुरक्षा को मुकम्मल किया गया है, वे भी आने वाले सालों में बहुत सुरक्षित नहीं रह सकेंगे।

सुपौल शहर के आसपास हुए कटाव के बाद सड़क की मरम्मत का दृश्य।

यह देखने में आता है कि शहरी इलाकों के आसपास सुरक्षा घेरे खड़े किये जाते हैं या वहां की संरचनाओं को अधिक ऊंचाई पर व मजबूत बनाया जाता है, लेकिन यह बढते खतरों का दीर्घकालिक समाधान नजर नहीं आता।

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