हाइब्रिड बीज पर आदिवासी किसानों की बढती निर्भरता से उनमें कर्ज लेने के मामले बढ रहे हैं। हाइब्रिड बीज वाली फसलें मौसम की मार अधिक झेलती हैं, जबकि परंपरागत बीज वाली फसलें और मोटे अनाज मौसमी अनिश्चितताओं को झेलने में अधिक समर्थ होते हैं। इससे आदिवासी किसानों की आय की अनिश्चितता और खाद्य असुरक्षा बढ रही है। इसकी खेती के प्रति लोभ बाजार में इसका मूल्य व एमएसपी है, लेकिन यह एक नए तरह के संकट को जन्म दे रहा है।
महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले से सतीश मालवीय की रिपोर्ट
महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के धरगांव तालुका के खर्डी गांव में 32 साल के प्रवासी मजदूर गुलाब सिंह पावरा अपने घर के अंदर बने एक लकड़ी के मचान पर रखे एक लोहे के बक्से में रखी कूटकी (एक प्रकार का मोटा अनाज) हमें दिखाते हैं। वे अन्य मोटे अनाज भी इसी तरह सहेज कर रखते हैं। गुलाब ने कूटकी-कोदो (कोदरा) की तरह ही पुराना देसी बाजरा और मक्का भी इसी तरह सहेज कर रखा हुआ है। गुलाब कहते हैं, “ये मोटे अनाज बुरे समय में हमारे खाने के काम में आते हैं। हम इन्हें कई सालों तक सहेज कर रख सकते हैं, ये 5 से 10 साल तक खराब नहीं होते और न इनमें घुन लगते हैं”।
गुलाब सिंह पावरा आदिवासी वर्ग से आते हैं। इनका परिवार सीमांत किसान है और दो एकड़ से भी कुछ कम जमीन पर चार भाइयों की निर्भरता है। इस वजह से अपनी खेती से पर्याप्त आय नहीं होती तो ये लोग महाराष्ट्र के ही दूसरे जिलों में कुछ महीने कमाने जाते हैं।

मोटा अनाज किसानों के लिए संकट का साथी रहा है, जिसकी खेती विपरीत हालात में भी हो जाती है, लेकिन बाजार के दबाव में किसानों का रुख हाइब्रिड बीज वाले अनाज की ओर हो रहा है, जो चिंता की बात है।
नंदुरबार की भौगोलिक स्थिति व चुनौती
नंदुरबार गुजरात व मध्यप्रदेश से लगा महाराष्ट्र का एक आदिवासी बहुल जिला है जो विशाल भौगोलिक क्षेत्र 5955 वर्ग किमी में फैला हुआ है और देश के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल है। नंदुरबार का यह पहाड़ी क्षेत्र चरम मौसमी घटनाओं के लिए जाना जाता है। पानी की कमी की वजह से किसान साल में केवल खरीफ की ही फ़सल ले पाते हैं। वो भी कभी कम बारिश तो कभी अधिक बारिश से फसलें ख़राब होती रहती हैं। इस वजह से स्थानीय छोटे और गरीब किसानों को अनाज और पोषण के संकट का सामना करना होता है। ऐसे समय में सहेज कर रखे हुए पुराने मोटे अनाज उनके काम आते हैं।
हालांकि वक्त के साथ मोटे अनाज की खेती चुनौतियों का सामना कर रही है और हाइब्रिड बीज का चलन जोर पकड़ रहा है। यह इस इलाके के आदिवासियों के लिए एक चुनौती उत्पन्न कर सकती है।
गुलाब सिंह कहते हैं, “अब कोई इन मोटे अनाजों की खेती नहीं करता। पहले हमारे पहाड़ी इलाके में केवल मोटे अनाज की ही खेती होती थी और वो हर मौसम को सहन कर लेता था पर उसकी बाजार में कीमत नहीं मिलती थी, इसलिए उसकी खेती करना लोगों ने छोड़ दिया”। लोगों से मिली जानकारी के अनुसार, पिछले दो दशकों में हाइब्रिड बीजों का दखल खेती में बढा है।

गुलाब सिंह पावरा मोटे अनाज को दिखाते हुए। फोटो: सतीश मालवीय।
गुलाब आगे कहते हैं, “अब सब हाइब्रिड मक्का की खेती करते हैं, पहले पारंपरिक रूप से उत्पादित बाजरे की किसान खेती किया करते थे और उन्हें शायद ही बेचा जाता था। उन्हें मुख्य रूप से खाद्य सुरक्षा के लिए संग्रहीत किया जाता था”।
गुलाब बताते हैं, “हाइब्रिड मक्का का बाजार में ज्यादा दाम मिलता है, लेकिन उसमे लागत भी बहुत चाहिए। उसके लिए ज्यादा पानी, ज्यादा खाद, ज्यादा कीटनाशक चाहिए होता है। इसके बाद भी मौसम की मेहरबानी पर ही निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि कभी बारिश देर से होती है तो कभी फ़सल पकने पर मूसलाधार बारिश होती है। दोनों ही स्थितियों में नुकसान का खतरा बना रहता है”।
वे कहते हैं, “मेरे जैसे छोटे किसान के लिए यह नुकसान उठाना मुश्किल है। लेकिन नुकसान की आशंका के बाद भी यहाँ के किसान हाइब्रिड बीज से ही खेती करते हैं, क्योंकि उसे बाजार में एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचा जा सकता है। पुराने मोटे अनाज को केवल खाने के उपयोग में इस्तेमाल करते हैं”।
नंदुरबार जिले के ही अक्कलकुवा तालुका के मौलगी गांव के 60 वर्षीय राम सिंह पड़वी एक प्रगतिशील किसान हैं और खेती में नये प्रयोग करते रहते हैं। राम सिंह कृषि विज्ञान केंद्र की सहायता से पुराने बीजों को सहजने और मोटे अनाज की फसलों की दोबारा से खेती करने के लिए दूसरे किसानों को प्रोत्साहित भी करते हैं।

किसान राम सिंह पड़वी अपने खेत में लगी फसल को दिखाते हुए। फोटो: सतीश मालवीय।
वे कहते हैं, “पहले इस सूखे क्षेत्र में केवल मोटे अनाज की ही खेती किसान करते थे, पर जब से हाइब्रिड बीज आया है तब से सभी तरह के मोटे अनाज यहाँ से लुप्त हो हो गए। मैंने अब कृषि वैज्ञानिकों और कृषि विज्ञान केंद्र की सहायता से अपने खेत में उन सभी मोटे अनाजों की खेती शुरू की है जो खत्म हो गए थे”।
आदिवासी वर्ग के पोषण में देशी खाद्य फसलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पुराने बीजों की प्रजातियों के लुप्त होने का प्रमुख कारण छोटे जोत वाले किसानों का रोजगार के लिए विस्थापन और बड़े किसानों का नगदी और हाइब्रिड फसलों की तरफ रुझान होना है।

खेत में लगी मोटे अनाज की फसल।
राम सिंह के अनुसार नागली (रागी या मड़ुआ) और दूसरी स्थानीय फसलों की खेती कम होने के पीछे पारंपरिक खेती के तरीकों को आधुनिक खेती में बदलना है। नागली, कूदो जैसी फसलें खेतों में खरपतबार और गोबर के खाद में होती थी, लेकिन अब न खेतों में खरपरबार होती है और पशुधन की कमी के कारण न गोबर। अब तो ज्यादातर खेती मशीनों से होती है। मशीनों से खेती महंगी होती है, जिसके लिए किसानों को कर्ज लेना पड़ता है और उस कर्ज को पाटने के लिए वो ऐसी फसले करते हैं जिससे उनका कर्ज चूकता हो सके।
इस संवाददाता ने अपनी ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौराना देखा कि दूसरे गांवों के कई किसान राम सिंह के खेत पर फॉक्सटेल मिलेट (स्थानीय नाम बाड़ी और पाड़ी) की खेती देखने आएं हुए हैं।