तीन दशकों में कितना बदला मैंग्रोव कवर, क्या है खूबियां और क्या हैं चुनौतियां?

वैश्विक स्तर पर मैंग्रोव का कवर कम होना एक चिंता की बात है। वैश्विक स्तर पर आइयूसीएन की रेड लिस्ट में सूचीबद्ध मैंग्रोव की 11 प्रजातियां संकटग्रस्त हैं, जिसमें भारत में दो प्रजातियां मौजूद हैं। ये कम बीज व्यवहार्यता व धीमे विकास के कारण संकट में हैं।

मैंग्रोव एक विशिष्ट प्रकार के पेड़ व झाड़ियां होते हैं जो तटीय क्षेत्र व नदी डेल्टा में पाए जाते हैं। ये पेड़ खारापन या पानी की लवणता को सहने में अधिक सक्षम होते हैं और तटीय क्षेत्र में रहने वाले समुदाय के लिए एक ढाल की तरह काम करते हैं। दरअसल मैंग्रोव शब्द का प्रयोग नमक सहिष्णु पौधों के समुदाय को इंगित करने के लिए किया जाता है और ये उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय अंतर ज्वारीय क्षेत्रों में पनपते हैं। ये तटीय कटाव को रोकते हैं, जैव विविधता को संरक्षित करते हैं और इनमें कार्बन को अवशोषित करने की क्षमता सामान्य पेड़ों से अधिक होती है।

1995 के भारतीय वन सर्वे के अनुसार, भारत में दुनिया का पांच प्रतिशत मैग्रोव कवर है और इसमें अकेले 50 प्रतिशत पश्चिम बंगाल में और 25 प्रतिशत अंडमान निकोबार द्वीप समूह में है। भारतीय वन सर्वे ने पहली बार 1987 में देश में मैंग्रोव कवर का आकलन किया था और उसके बाद से प्रायः हर साल इसका आकलन किया जाता है। सेटेलाइट डेटा व अन्य स्रोतों के आधार पर मैंग्रोव का आकलन किया जाता है।

भारतीय वन सर्वे की वर्ष 1995 की रिपोर्ट के अनुसार, 1989 से 1993 तक भारत में मैंग्रोव कवर में कोई बदलाव नहीं आया। शुरुआती सालों के आकलन के अनुसार, पश्चिम बंगाल व अंडमान के बाद गुजरात, आंध्रप्रदेश, ओडिशा व महाराष्ट्र ऐसे राज्य हैं, जहां अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में मैंग्रोव कवर रहा है। इसके अलावा अल्प मात्रा में तमिलनाडु, गोवा व कर्नाटक जैसे राज्यों में भी मैंग्रोव कवर रहा है।

उत्तर 24 परगना जिले में धमाखाली के पास मैंग्रोव का दृश्य। फोटो – राहुल सिंह।

1995 के भारतीय वन सर्वे के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 2119 वर्ग किमी, अंडमान निकोबार में 966 वर्ग किमी, गुजरात में 689 वर्ग किमी, आंध्रप्रदेश में 383 वर्ग किमी, ओडिशा में 195, महाराष्ट्र में 155, तमिलनाडु में 21 वर्ग किमी, गोवा में तीन वर्ग किमी और कर्नाटक में दो वर्ग किमी में मैंग्रोव कवर था।

मैंग्रोव पारिस्थितिकी रूप से खारे पानी को सहन कर सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए मीठै पानी की आवश्यकता होती है। बदलते जलवायु व पारिस्थितिकी के बीच मसलन उच्च लवणता, चक्रवाती तूफानों आदि के बीच मैंग्रोव ने भी अपने अंदर अनुकूलन विकसित किया है। कोरल रीफ पारिस्थितिकी तंत्र के बाद मैंग्रोव दूसरे नंबर पर तटीय समुदायों के लिए पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का सबसे महत्वपूर्ण प्रदाता माना जाता है।

भारतीय वन सर्वे के वर्ष 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, हाल के शोध ने मैंग्रोव की कुछ महत्वपूर्ण खूबियों का पता चला है। मैंग्रोव में माइक्रो प्लास्टिक के भंडाराण की क्षमता होती है जो उनके महत्व को अधिक बढाते हैं। मैंग्रोव पौधों व जंतुओं दोनों में समुद्री जैव विविधता को बढावा देते हैं। ये तटीय क्षेत्रों के समुदााय को संसाधनों की एक विविध श्रृंखला प्रदान करते हैं। कार्बन भंडारण व मछली उत्पादन में भी इनकी भूमिका होती है।

इस तसवीर में एक भवन के पीछे मैंग्रोव के पेड़ दिख रहे हैं, अगर यह पेड़ नहीं हो तो मिट्टी का कटाव अधिक तेज होगा और इस भवन का संकट अधिक बढ जाएगा। इसलिए मैंग्रोव को तटीय क्षेत्र का ढाल कहा जाता है। यह तसवीर उत्तर 24 परगना जिले के धमाखाली की है।

वर्ष 2023 के वन सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 4000.11 वर्ग किमी क्षेत्र में मैंग्रोव वन या मैग्रोव कवर है। इसमें सबसे अधिक पश्चिम बंगाल में 2117.75 वर्ग किमी, गुजरात में 1200 वर्ग किमी और अंडमान एवं निकोबार में 612.94 वर्ग किमी में मैंग्रोव कवर है।

दिलचस्प बात यह कि भारत के मैंग्रोव वनों में दुनिया में सबसे अधिक जैव विविधता दर्ज की गई है। कुल 4107 प्रजातियां भारतीय मैंग्रोव वनों में दर्ज की गई हैं, जिनमें 23 प्रतिशत वनस्पति और 77 प्रतिशत जीव हैं। ओडिशा की भीतरकनिका मैंग्रोव जेनेटिक पैराडाइज या मैंग्रोव अनुवांशिकों के स्वर्ग के रूप में जाना जाता है।

ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट 2020 में दुनिया भर में मैंग्रोव के विस्तार का आकलन किया गया है। इसके अनुसार, मैंग्रोव वन 113 देशों में 14.72 हेक्टेयर भूमि क्षेत्र में फैले हुए है। हालांकि इनका विस्तार क्षेत्रवार असामान्य है। इनका सर्वाधिक विस्तार दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में है जहां ये 5.53 मिलियन हेक्टेयर यानी कुल उपलब्धता का 36.2 प्रतिशत हिस्से में फैले हैं। इसके बाद दक्षिण अमेरिका में 2.12 मिलियन हेक्टेयर, पश्चिमी और मध्य अफ्रीका में 2.30 मिलियन हेक्टेयर, उत्तर व मध्य अमेरिका में 2.55 मिलियन हेक्टेयर और ओशिनिया में 1.26 मिलियन हेक्टेयर में फैले हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 1990 से 2020 के बीच 1.04 मिलियन हेक्टेयर मैंग्रोव कवर में कमी आयी है।

1990 से 2000 के बीच हर साल 46,700 हेक्टेयर भूमि पर औतसन मैंग्रोव कवर में कमी आई जबकि 2000 से 2010 के बीच यह कमी 36300 हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से और 2010 से 2020 के दौरान 21, 200 हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से आयी।

भारतीय वन सर्वे की वर्ष 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में तीन क्षेत्रों पूर्वी तट, पश्चिमी तट और अंडमान निकोबार द्वीप में मुख्य रूप से मैंग्रोव मिलते हैं और लक्षद्वीप में उनकी मामूली उपस्थिति है। पूर्वी तट पर मैंग्रोव की 40 प्रजातिया हैं, पश्चिमी तट पर मैंग्रोव की 27 प्रजातियां हैं, जबकि अंडमान निकोबार में 38 प्रजातियां हैं। अपेक्षाकृत मैंग्रोव विविधता अंडमान निकोबार में अधिक है। पश्चिम बंगाल में सुंदरबन क्षेत्र का नाम सुंदरी मैंग्रोव प्रजाति के नाम पर पड़ा है जो आकर्षक दिखते हैं, पर यह संकटग्रस्त है। भारत में आइयूसीएन रेड लिस्ट में सूचीबद्ध संकटग्रस्त 11 मैंग्रोव प्रजातियों में दो मिलते हैं, जिनके नाम हैं – हेरिटिएरा फ़ोम्स (Heritiera Fomes)और सोनेराटिया ग्रिफ़िथी (Sonneratia griffithii)। ये कम बीज व्यवहार्यर्ता (low seed
viability) व धीमे विकास के कारण संकटग्रस्त हैं।

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