मनरेगा पर कलकत्ता हाइकोर्ट के आदेश का संदेश: कुछ के भ्रष्टाचार के लिए लोगों को सजा नहीं दी जा सकती

न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि केंद्र को योजनाओं में अनियमितताओं के लिए राज्यों को दंडित करते समय संयम बरतना चाहिए। सरकारों को योजनाओं को हथियार बनाने के खिलाफ न्यायालय के व्यापक संदेश को समझना चाहिए।

पूर्बायन चक्रवर्ती और मृणालिनी पॉल का लेख

हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने केंद्र को निर्देश दिया है कि वह पश्चिम बंगाल में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम मनरेगा योजना के तहत एक अगस्त से काम फिर से शुरू करे। केंद्र ने नौ मार्च, 2022 के अपने पहले के आदेश के ज़रिए अधिनियम की धारा 27 के तहत अनियमितताओं का हवाला देते हुए इस योजना के लिए धन जारी करना बंद कर दिया था। मई 2023 में पश्चिम बंगाल के ग्रामीण श्रमिकों के ट्रेड यूनियन पश्चिम बंगा खेत मजूर समिति पीबीकेएमएस ने धन आवंटन रोके जाने को चुनौती देते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उच्च न्यायालय का यह आदेश राज्य और उसके लाखों मनरेगा श्रमिकों के लिए एक बहुप्रतीक्षित राहत है।

आजीविका का अधिकार एक मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 21 से प्राप्त होता है। कोई भी कार्यकारी कार्रवाई जो मौलिक अधिकार को कम करने का प्रयास करती है, उसे एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2024) जैसे मामलों की श्रृंखला में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित और लगातार नियोजित आनुपातिकता परीक्षण से गुजरना होगा। परीक्षण के लिए आवश्यक है कि ऐसा कोई भी कार्यकारी उपाय वैध उद्देश्य रखता हो और उपयुक्त साधनों का पालन करता हो। यह आगे यह भी अनिवार्य करता है कि मौलिक अधिकार पर कोई भी प्रतिबंध संकीर्ण या सीमित रूप से तैयार किया जाना चाहिए और उसे न्यूनतम रखा जाना चाहिए और व्यक्ति के अधिकार पर प्रभाव उस उद्देश्य के अनुपात से बाहर नहीं होना चाहिए, जिसका अनुसरण किया जा रहा है।

पश्चिम बंगाल की 3300 से ज़्यादा ग्राम पंचायतों में से सिर्फ़ कुछ में ही अनियमितताएँ पाई गईं। लक्षित सुधारात्मक कार्रवाई करने के बजाय, केंद्र ने राज्य भर में मनरेगा के तहत मिलने वाले फंड पर पूरी तरह रोक लगा दी, जिससे लाखों ग्रामीण मज़दूर बेरोज़गार हो गए। यह कार्रवाई न तो कम प्रतिबंधात्मक थी और न ही उस उद्देश्य के अनुरूप थी जिसका अनुसरण किया जा रहा था। इसलिए, यह दोनों ही मामलों में आनुपातिकता परीक्षण में विफल रही।

अधिनियम की धारा 27 केंद्र को सत्यापित अनियमितताओं के मामलों में अंतिम उपाय के रूप में मनरेगा योजना के तहत निधियों को रोकने का अधिकार देती है। लेकिन, साथ ही यह समयबद्ध तरीके से सुधारात्मक उपायों को लागू करने और उचित समय के भीतर योजना के कार्यान्वयन को फिर से शुरू करने की जिम्मेवारी भी निर्धारित करती है। हालांकि, इस मामले में तीन साल से अधिक समय के बाद भी, केंद्र निधि को फिर से शुरू करने में विफल रहा। इसलिए हाईकोर्ट ने सही कहा, “अधिनियम की योजना ऐसी स्थिति की परिकल्पना नहीं करती है जहां इसे अनंत काल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा”। धारा 27 आजीविका के साथ जवाबदेही को भी संतुलित करती है। इस मामले में उस संतुलन का उल्लंघन किया गया। हाईकोर्ट का आदेश इस बात की पुष्टि करता है कि अपने विवेकाधीन अधिकारों के प्रयोग में कार्यकारी पदधारी वैधानिक या संवैधानिक सीमाओं से परे नहीं जा सकते।

हमारे देश में भ्रष्टाचार गंभीर है, लेकिन असामान्य नहीं है। लेकिन, क्या उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण कमज़ोर लोगों को पीड़ित होना चाहिए? ऐसे समय में फंडिंग रोक दी गई जब मनरेगा एक आर्थिक ढाल हो सकता था, खासकर उन हज़ारों गरीब ग्रामीण मज़दूरों के लिए जो कोविड के कारण घर लौट आए थे। बिना वेतन के भुगतान और कोई नया काम नज़र न आने की वजह से वे गरीबी, कर्ज, पलायन और कुपोषण के दुष्चक्र में फंस गए।

राज्य और उसकी आबादी का वंचित होना सिर्फ मनरेगा तक ही सीमित नहीं है, इसका विस्तार अन्य केंद्रीय योजनाओं तक भी है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक संसदीय पैनल को सूचित किया है कि पश्चिम बंगाल के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण (पीएमए-जी) के तहत लगभग 8,000 करोड़ रुपये अभी भी जारी किए जाने हैं। 2023 में, राज्य ने केंद्र पर एकीकृत बाल विकास सेवाओं (ICDS) और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (PMMVY) के लिए धन रोकने का आरोप लगाया। हालांकि, तत्कालीन केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने इन आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि राज्य सरकार धन का दुरुपयोग कर रही है और 260 करोड़ रुपये “बिना इस्तेमाल किए पड़े हैं”। पश्चिम बंगाल देश के उन तीन राज्यों में से एक है, जिन्होंने पीएम श्री योजना का पालन करने से इनकार कर दिया और परिणामस्वरूप, समग्र शिक्षा योजना (2024-25) के लिए कोई धन नहीं मिला है।

राज्य सरकार की प्रतिक्रिया बहुत ही भ्रामक रही है। पीड़ित की भूमिका निभाने के अलावा, यह शायद ही कभी तार्किक या कानूनी कार्रवाई करती दिखी है। अक्सर, वह केंद्र द्वारा रोकी गई योजनाओं के समानांतर राज्य की योजना को शुरू करने में जल्दबाजी करती है। ऐसा मनरेगा के मामले में भी हुआ। राज्य ने 2024 में कर्मश्री योजना शुरू की, जिसके तहत हर मनरेगा जॉब कार्डधारक परिवार को एक साल में 50 दिन काम मिलना चाहिए। आम चुनावों से ठीक पहले शुरू की गई यह योजना किसी भी तरह से मनरेगा के प्रावधानों से मेल नहीं खाती। उदाहरण के लिए, कर्मश्री के लिए अलग से कोई बजट आवंटित नहीं किया गया है और न ही बेरोजगारी भत्ते का कोई उल्लेख है।

ऐसे समय में जब हाईकोर्ट का आदेश राज्य के 257 लाख पंजीकृत मनरेगा श्रमिकों के लिए तत्काल राहत के रूप में आया है, सरकारों को “योजनाओं को हथियार बनाने” के खिलाफ इसके बड़े संदेश को पढ़ना चाहिए। भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, यह आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया है, क्योंकि हाईकोर्ट ने केंद्र को राज्य पर विशेष शर्तें लगाने का अधिकार दिया है ताकि पिछले मुद्दे फिर से न उठें। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि लोगों के जीवन और आजीविका से समझौता किया जा सकता है। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ, इस आदेश को तृणमूल कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी दोनों ने जीत के रूप में सराहा है, लेकिन असली जीत न्यायपालिका की चेतावनी में निहित है कि वे भ्रष्टाचार की राजनीति और लोक कल्याण की राजनीति को और अधिक न मिलाएं।

(पूर्बायन चक्रवर्ती कोलकाता स्थित वकील हैं और मृणालिनी पॉल टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में रिसर्चर हैं।)

(यह आलेख हमने इंडियन एक्सप्रेस से अनूदित कर प्रकाशित किया है। अंग्रेजी में इस आलेख को पढने के लिए इस लिंक को क्लिक करें।)

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