बिहार नदी संवाद का घोषणा पत्र

नोट – पटना के ठाकुर प्रसाद कम्युनिटी हॉल में 28 एवं 29 सितंबर 2024 को बिहार नदी संवाद का आयोजन किया गया। यह आयोजन कोसी नवनिर्माण मंच व विभिन्न नदी बचाओ संगठनों एवं सामाजिक संगठनों की साझा पहल पर किया गया। इस नदी संवाद में कई नदी अधिकार कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार आदि शामिल हुए। नदी संवाद के बाद जारी किये गये घोषणा पत्र को हम यहां सामान्य संपादन के साथ हू-ब-हू प्रकाशित कर रहे हैं। इसके प्रकाशन का उद्देश्य यह है कि भविष्य में यह डिजिटल संदर्भ के रूप में काम करता रहे।

घोषणा पत्र –
विश्व नदी दिवस सप्ताह पर नदी, पानी, पर्यावरण और समाज को समर्पित साथी विजय भाई, कामेश्वर कामती जी और रणजीव जी की स्मृति में बिहार नदी संवाद का आयोजन पटना के ठाकुर प्रसाद कम्युनिटी हॉल, किदवई पुरी में 28 व 29 सितंबर 2024 को हुआ। इस संवाद में बतौर अतिथि सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद मेधा पाटकर, पर्यावरण के क्षेत्र में गोल्ड मैन पुरस्कार से सम्मानित प्रफुल्ल सामंता, गंगा मुक्ति आंदोलन के अनिल प्रकाश और वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ सहित अन्य लोगों ने भाग लिया। बिहार में हो रही भारी बारिश और बाढ़ की विकराल स्थिति के बीच अपने डूबते घरों को छोड़ कर अनेक मुश्किलों में कोसी, महानंदा, कमला, बलान, अधवारा समूह, बागमती, लखनदेई, गंगा, गंडक, किऊल, फल्गू इत्यादि नदी क्षेत्र से लोग आये और अपने अनुभव और विचार साझा किया।

इस आयोजन की प्रासंगिकता इस बात से और बढ़ जाती है कि जिस समय यह संवाद चल रहा है, उसी समय कोसी नदी में अप्रत्याशित जलराशि 6.5 लाख क्यूसेक के आसपास नेपाल के जलग्रहण क्षेत्र से बहकर निचले इलाकों में आ रही है, जिससे पूरा उत्तर बिहार संकट में है और तटबंध, बैराज, लोगों के जनजीवन पर तलवार लटक रही है। हमारी मौसम अनुमान प्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं कि लोगों को समय रहते सूचित क्यों नहीं किया गया।

अभी तक दियारा के लोगों को निकालने की कोई ठोस रणनीति नहीं दिख रही। लोगों की चिंता यह भी है कि गंगा में आई बाढ़ और फरक्का बैराज के गेट के बंद होने से कोसी की इतनी बड़ी जलराशि कैसे सुगमता के साथ समुद्र तक पहुंचेगी। इस संदर्भ में पूरे बिहार में नदियों के साथ हुई जोड़-तोड़ साफ-साफ रेखांकित की जा सकती है। प्रकृति के साथ हुए खिलवाड़ और विकास की विकृति ने करोड़ों लोगों के जीवन को संकट में डाल दिया है और आज सरकार प्रकृति को दोषी ठहरा रही है। आज अगर लोगों को समुचित पुनर्वास दिया जाता तो वो कम से कम अपनी जान बचा पाते लेकिन आज वो इतने असहाय हैं कि भगवान से प्रार्थना के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है।

हम इस स्थिति में क्यों पहुंचे, इसकी पड़ताल के ऐतिहासिक संदर्भ को समझ लेना उपयोगी होगा। नीचे इसका जिक्र है।

ऐतिहासिक संदर्भ


बिहार नदियों का प्रदेश है। इसके 38 में से 28 जिले बाढ़ से प्रभावित माने जाते हैं। गंगा नदी की मुख्य धार बिहार को बीचों-बीच दो हिस्सों में बांटती है। उत्तर बिहार में बहने वाली अधिकतर नदियां नेपालहिमालय से आती है। क्योंकि, हिमालय एक यंग फोल्ड माउंटेन है, इससे निकलकर बहने वाली नदियां भारी मात्रा में भूमि का क्षरण करते हुए आती हैं और अपने साथ गाद लेकर आती हैं। एक और बात गौरतलब है कि नेपाल से आने वाली नदियों को मिडल कोर्स नहीं मिल पाता जिससे वो पहाड़ से अचानक मैदान में पसर जाती हैं जिससे इनकी गति धीमे हो जाती है, गाद ढोने की क्षमता कम हो जाती है। इस कारण नदियां अपने गाद के बगल से रास्ता लेने के लिए विवश हो जाती हैं और यही कारण है कि उत्तर बिहार की नदियां एक रास्ता से कम ही बहती हैं। धारा परिवर्तन के लिए कोसी नदी कुख्यात है।

आधुनिक राज्य के आने से पहले और तकनीकी क्षमता की सीमाओं के कारण ऐसी नदियों के साथ स्थानीय समाज समायोजन करके रहता था। इस इलाके में खेती, गृह निर्माण, यातायात आदि नदियों की प्रकृति को केंद्र में रखकर विकसित हुए हैं। बाढ़ समस्या तो थी लेकिन उसका लाभ भी समाज लेता था। बाढ़ के पानी से खेती, जलसंग्रहण, मछलीपालन आदि जैसी आजीविका बड़े पैमाने पर चलती थी। नदियों के इर्द-गिर्द एक अर्थव्यवस्था थी। दिवंगत नदी विशेषज्ञ रणजीव कुमार अपने जीवन के अंतिम समय तक जल.केंद्रित अर्थव्यवस्था और विकास के हिमायती रहे और कोलतारी विकास की मुखालफत करते रहे।

तकनीक की हनक और राज्यसत्ता के लालच ने नदियों को विकास की रूढ़िवादी संकल्पना के लिए एक अवरोध माना। ये देखा गया कि धारा बदलने वाली नदियां खेती और जमीन से लगान वसूली में समस्या पैदा करती है। धीरे-धीरे ये राय बनी कि नदी और जमीन को अलग कर दिया जाए। यही ऐतिहासिक भूल थी। स्थानीय भूगोल को समझे बगैर नदियों को अनुशासित करने की होड़ चली जिसमें बांध, तटबंध और बैराज का प्रयोग बड़े पैमाने पर हुआ। ब्रिटिश राज्य के अभियंताओं ने 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ये माना था कि नदियों को अविरल बहने देनाष्ही मानवहित में है। दुर्भाग्य कि कलकत्ता बाढ़ सम्मेलन 1897, ओडिशा बाढ़ रिपोर्ट 1928, पटना बाढ़ सम्मेलन 1937 में उपजी समझ को दरकिनार करते हुए आजाद भारत ने नदियों को नियंत्रित करने का रास्ता ही चुना।

इस ऐतिहासिक संदर्भ में बिहार नदी संवाद में हुई चर्चा से उपजी समझ को दो खंडों में रखा जा सकता है। कुछ समस्याएं नदी विशेष से जुड़ी हैं, वहीं कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो बिहार स्तर पर हर नदी को प्रभावित करती है। पहले खंड में हम उन समस्याओं को नदी वार सूत्रबद्ध करेंगे जो अलग-अलग नदियों की हैं।

गंगा

गंगा नदी क्षेत्र में वहां नदी के पानी पर अंग्रेजों के समय से चली आ रही जमींदारी और पानीदारी को भागलपुर के साथियों के आंदोलन के पश्चात खत्म कर दिया गया, परंतु डॉल्फिन सेंचुरी के नाम पर मछुआरों को मछली पकड़ने से रोका जाता है। इससे उनकी आजीविका पर संकट है। गंगा नदी में थर्मल पावर प्लांट के हानिकारक रासायनिक कचरे और राख के विसर्जन से नदी दूषित हो रही है। राख रखने के तालाब को नियमानुसार नहीं बनाने से एक नये तरीके से संकट पैदा हुआ है। फरक्का बैराज बनने के कारण नदी में गाद जमा हो रहा है। वह गंगा और उसकी सहायक नदियों में बाढ़ का कारण बनता है। फरक्का बराज बनने से समुद्र से मीठे पानी में प्रजनन करने आने वाली मछलियों की अनेक प्रजातियाँ अब नही मिलती है। गंगा से 67 प्रजाति की मछलियाँ समाप्त हो चुकी हैं और 80 प्रतिशत मछली का उत्पादन घटा है।

आरा में तटबंधों के बनने से बाढ़ की भयावहता और बढ़ी है। गंगा के पेट में बना गंगा पथ भी नदी के जीवन के लिए हानिकारक है। बिहार सरकार ने भी फरक्का के दुष्प्रभावों को खत्म करने के लिए एक सम्मेलन करके प्रस्ताव पारित किया है, इसलिए फरक्का के संबंध में बिहार बाढ़ सम्मेलन के प्रस्तावों को राज्य सरकार अमल करने और कराने की दिशा में बढ़े। गंगा और उसकी सहायक नदियों पर कहलगांव के राख और रसायनयुक्त गंदा पानी छोड़ने पर रोक लगे। उसको अमल करने पर कोताही करने वाले लोगों को कठोर दंड दिया जाए, गंगा सहित सभी राज्य की नदियों के मछुआरों को फ्री फिशिंग का अधिकार देने के लिए राज्य सरकार कानून बनाये।

कोसी

कोसह नदी के भीतर बिना समुचित पुनर्वास के सरकार ने लाखों लोगों को बाढ़ और विपदा सहने के लिए छोड़ दिया। सभी को पुनर्वास नहीं दिया गया है तो मजबूरी में वे लोग तटबंधों के बीच रहते हैं। हर साल बाढ़ की विपदा झेलते हैं। इस साल भी भारी आपदा का सामना कर रहे हैं, जबकि अब भी पुनर्वास की खाली पड़ी जमीन की सरकार अस्थाई बंदोबस्ती कराती है। उनके कल्याण के लिए बना कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार आजतक गायब है। उनसे बाहर के उपजाऊ जमीन के समान लगान लिया जाता है जबकि चार हेैक्टेयर तक लगान माफ़ करने का शासकीय आदेश रहा है। चार तरह का बिना सुविधाओं का सेस लिया जाता है। शिक्षा का खस्ता हाल है, तटबंध के भीतर सुपौल जिले में तो एक भी उप स्वास्थ्य केंद्र कार्यरत नहीं है। चल रहे भू सर्वे में कोसी के लोगों की रैयती जमीन बिहार सरकार की संपत्ति हो जाने का खतरा है और उसको लेकर हुआ संशोधन भी पर्याप्त नहीं है। हाल में आई बाढ़ वर्षा की अनियंत्रित और अनियमित होने की सूचक है, जिसका संबंध ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ने की संभावना बन सकती है। समाधान की तलाश के बजाय सरकार तटबंध की चौड़ाई को घटाते हुए उस पर विश्व बैंक से कर्ज लेकर सुरक्षा बांध और नये स्पर बना रही है। कोसी के लोग हर साल अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। बिहार के कुछ राजनेता कोसी-मेची नदी जोड़ परियोजना के माध्यम से लोगों का ध्यान भटका रहे हैं। यह परियोजना जब पूरी तरह से कार्य करेगी तो भी बाढ़ खत्म नही होगी। नौ लाख क्यूसेक्स के डिजाइन डिस्चार्ज वाले तटबंध में अभी 7 लाख क्यूसेक्स तक पानी आया है परंतु कोसी-मेची नदी जोड़ परियोजना मात्र 5247 क्यूसेक अतिरिक्त पानी पूर्वी कोसी मुख्य नहर के माध्यम से निकास करने में मदद करेगी। उसी प्रकार डगमारा बैराज निर्माण से भी बाढ़ खत्म होने से ज्यादा गाद जमा होने से बाहर खतरा बढ़ेगा। इस पर सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के विशेषज्ञ मूल्यांकल समिति ईएसी द्वारा 2012 में जो सवाल उठाये गए हैं, वह गंभीर हैं।

इसलिए सरकार को तटबंध के भीतर सर्वे कराकर बिना पुनर्वास या पुनर्वास के कब्जे से परेशान लोगों और तटबंध के आसपास बसे कटाव पीड़ितों को पुनर्वास की व्यवस्था करानी होगी। सरकार पुनर्वास गारंटी कानून बनाए। कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार को सक्रिय करते ही उसे प्रभावी बनाना होगा, कोसी के समाधान के लिए इसकी पुरानी धाराओं को पुनर्जीवित करके उसमें नियंत्रित पानी छोड़े जाने की आवश्यकता है। सर्वे में किसानों के पास जमीन का मालिकाना हक रहे और उनके खेत से लगान और सेस यानी टैक्स के ऊपर लगने वाला टैक्स पूर्ण रूप से माफ़ करते हुए होने वाली क्षति की भरपाई देने का प्रावधान कराना होगा।

बागमती


बागमती नदी में जहाँ तटबंध बने हैं, वहां के लोग नदी की पेटी में गाद भरने से परेशान हैं। वहीं, तटबंध के टूटने से बाहर तबाही होती है। जहाँ तटबंध नहीं बने हैं और जहां तटबंध बनाए जाने की बात चल रही है, वहाँ के 84 गांवों के लोग विस्थापित हो जायेंगे। यह बहुत बड़ा खतरा है। वे लोग वर्षाें से आंदोलन के माध्यम से तटबंधों के बनने पर रोक लगाकर रखे हैं जिसके बाद सरकार द्वारा ही एक पुनरीक्षण कमेटी बनायी गई है, पर उस पुनरीक्षण कमेटी ने कोई रिपोर्ट नहीं दी है, न ही उसकी बैठकें हुई हैं और न ही क्षेत्र दौरा हुआ है। सरकार उस पुनरीक्षण कमेटी को पुनः प्रभावी बनाकर तटबंधों का निरपेक्ष मूल्यांकन कराये, तब तक तटबंधों के निर्माण पर लगे रोक को जारी रखे और निर्माण कार्य करने आने वाले ठेकेदारों पर कार्रवाई करे। बागमती नदी पर प्रस्तावित सीतामढ़ी के ढेंग के बैराज से भी क्षेत्र में कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि उससे तबाही ही होगी।

कमला

झंझारपुर से लेकर दरभंगा हवाई अड्डे तक कमला नदी और उसकी कई धाराएँ हैं। प्रत्येक धार से नासी, फोरी, बाहा, सोढ़ी निकलती है जिसका सम्बन्ध चौर, ढोढा, वेटलैंड से है और उससे संबंधित तालाब हैं। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर सरकार ने 10 धार के मुंह को बंद कर दिया है। तटबंधों के बनने से एक तरफ बाढ़ कटाव और दूसरी तरफ जलजमाव है। स्थिति इतनी खराब है कि टैंकर से पीने का पानी लाकर दिया जा रहा है अर्थात पेयजल का संकट है। दूसरे शब्दों में उत्तरी बिहार के जिले इकोलॉजिकल डिजास्टर यानी पर्यावरणीय आपदा का सामना कर रहे हैं। इसलिए कमला नदी पर बैराज बनाने के बजाय पहले से बने तटबंधों से कमला नदी और उसकी धाराओं को मुक्त करने से ही वहाँ का संकट खत्म होगा।

महानंदा


महानंदा नदी में जहाँ तटबंध बने हैं, वहां नदी तबाही लायी है। तटबंध टूटते भी हैं। बाढ़ और कटाव से भारी पैमाने पर लोग विस्थापित होते हैं, इस नदी पर जहां तटबंध नहीं है, वहां भी चार किमी की लंबाई में तटबंध बनाने की योजना शुरू है। इस नदी पर भी किशनगंज के तैयबपुर में बैराज बनाने की खबरे आ रही हैं। महानंदा के कटाव पीड़ितों को बसाना और तटबंधों की समीक्षा करना तत्काल जरूरी है।

बलान


बेगूसराय जिले में बहने वाली बलान नदी इतनी वर्षा काल में पानी को तरस रही है। उस नदी को ऊपरी भाग में जमुआरी तो उससे ऊपर कोदाने कहते हैं। यह बहुत पहले कभी बूढी गंडक का मार्ग हुआ करती थी। बूढी गंडक पर बने तटबंध और स्लूइस गेट से इसमें पानी का स्वाभाविक मार्ग बंद हुआ है। अब इसके किनारे मछुआरों की आजीविका चली गयी है। नदी जलकुंभी से भर चुकी है। इसका पानी पैर में लग जाए तो चर्म रोग और बीमारी हो जाए। नदी की धाराओं को मुक्त करते हुए इसको अविरल और निर्मल बनाने की उठ रही मांग जायज है।

लखनदेई और अधवारा


बंद पड़ी लखनदेई नदी को पुनर्जीवित करने की कोशिश बहुत सराहनीय है। अधवारा समूह की नदियाँ भी तटबंध के निर्माण और जल निकासी के मार्गों में हो रहे अवरोधों की शिकार हैं। उनके समाधान की बात उठनी चाहिए।

जमुई जिले की नदियां


जमुई जिले की किऊल नदी हो या अन्य नदियाँ, बालू के खनन से भारी संकट से गुजर रही हैं। उनकी जब कोई बात करता है तो माफिया और प्रशासन मिलकर उसकी आवाज को दबाते हैं। इसलिए इन नदियों के जीवन के लिए कार्य होना बेहद जरूरी है। स्थानीय लोगों ने गर्मी के दिनों में भी पदयात्रा की है और वे सभी का समर्थन चाहते हैं।

सौरा नदी

सौरा नदी की धाराओं के साथ भूमाफिया द्वारा छेड़छाड़ कर नदी के जमीन को बेचने पर लगे रोक। सौरा नदी के किनारे नगर निगम द्वारा फेंके जा रहे शहर के कचड़े पर लगे रोक। सौरा नदी के किनारे फैलाये जा रहे मेडिकल वेस्ट पर पाबंदी लगे। पूर्ण अरण्य की धरती पूर्णिया मे वनीकरण और वन्यजीवन को बचाने के लिए उच्चस्तरीय समिति का निर्माण हो। खराब प्रबंधन के साथ पूर्णिया के बियाडा में हो रहे नए लघु उद्योगों की स्थापना हेतु एक पर्यावरणीय एसओपी का निर्माण हो। प्रदूषण विनियमन मानदंडों का उल्लंघन करने वालो की जांच की जाये। सौरा नदी के तटबंधों पर सरकारी स्तर पर वृक्षारोपण हो। सरकारी स्तर पर सौरा नदी की जमीन का सर्वे और मापी का कार्य हो। सौरा नदी को अतिक्रमण मुक्त कराना अनिवार्य। सौरा नदी के तटवर्ती अधिकारों की रक्षा के लिए नदी प्रशासन को मज़बूत कर नदी की सफाई, गाद की उड़ाही का कार्य प्रारंभ हो।

गंडक नदी


गंडक के साथ भी अमूमन वही समस्या है। तटबंध निर्माण से बाँध के भीतर के लोग हर साल बाढ़ और कटाव का सामना करते हैं। उनकी मांगों को सरकार को सुनना चाहिए, गंडक के पानी के निकास और नियमन समय पर सही मात्रा में न होने से बलान जैसी अन्य नदियों पर भी आघात हो रहा है।

• कटाव पीड़ितों के पुनर्वास की समस्या।

• लम्बे प्रयास/ संघर्ष के बाद जिन कुछ लोगों को वास भूमि मिली है उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं मिला।

• वास भूमि 8-10 फुट गढ़े में मिलना ।

• नदी का तल ऊंचा होते जाना।

• रामरेखा, हड़बोड़ा और सिकरहना नदी का हरिनगर और नरकटियागंज चीनी मिलों के गंदे पानी के कारण प्रदूषित होना।

• वर्षा के पानी के बहाव के प्राकृतिक नालों पर कब्जे के कारण तटबंध के बाहर जलजमाव ।

• बेतिया शहर की चन्द्रावत उर्फ कोहड़ा नदी का कब्जे के कारण विलुप्त होते जाना।

• चंपारण तटबंध पर सुईस गेट और ठोकर (स्पर) के निर्माण पर ध्यान नहीं देना।

मगध की नदियां

मगध की नदियों में फल्गू में गंगा का पानी जाने और रबर डैम बनने के बाद वहां प्रभाव पड़ा है। सलिला नदी जो बालू खोदते ही पानी मिल जाने के लिए विख्यात थी, जब से रबर डैम बना है और गंगा का पानी मिला है, अब जलस्तर नीचे जाने से पानी बहुत गहराई में मिलता है और पिंडदान करने के लिए लोग पानी खरीदने के लिए विवश हैं। गंदगी से नदी भर जा रही है। इतना ही नहीं, नदी में गर्मियों में बड़ी-बड़ी दरारें फट जा रही हैं। यह इस नदी के जीवन के संकट में पड़ने की दास्तान है। बहुप्रचारित रबर डैम के पास सफाई के लिए महज दो साल में ही करोड़ों की खर्चीली निविदा निकालनी पड़ रही है। नदी के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का तत्काल जनपक्षीय अध्ययन कराना और उसकी अनुशंसा पर अमल करना बेहद जरूरी है। मगध की अन्य नदियाँ अतिक्रमण और बालू खनन की शिकार हैं और उनका जीवन बचाने की हर संभव कोशिश होनी चाहिए।

तालाब

तालाब का निर्माण जल नियोजन और संरक्षण की परंपरातगत प्रणाली का बेहद अनूठा उदाहरण है। अभी तालाब भरकर जमीन कब्जा कर लेने, अतिक्रमण, उसमें गंदे पानी गिराने से त्रस्त हैं तो सरकारें उनको कंक्रीट से निर्मित कर उसके जीवन को मार रही हैं। तालाबों को बचाना बेहद जरूरी है।

रिवर फ्रंट

शहरी नदियों के लिए भी कार्य करने की आवश्यकता है। शहरी नदियों को गंदे नाले के रूप में हर जगह तब्दील कर दिया गया है। उससे बचाना बेहद जरूरी है। समुचित अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र बनाए जाने चाहिए जिससे औद्योगिक कचरा नदी में प्रसंस्करण के बाद ही डाला जाए। बिहार में भी नदी किनारे अनेक रिवर फ्रंट बनाए जा रहे है। नदी के किनारा को कंक्रीट सीमेंट से भरकर उसके जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाता है। दरअसल यह एक रियल एस्टेट प्रोजेक्ट के जैसा है, जिसमे मध्यम वर्ग की जरूरतों के लिए पूंजी का इस्तेमाल करके प्रकृति से कमाई की जा रही है। रिवर फ्रंट डेवलपमेंट से नदी पर परंपरागत रूप से आश्रित समुदायों की आजीविका पर भी संकट है। यह भी बंद होना चाहिए।

समस्याओं का निष्कर्ष

नदियों का तंत्र छिन्न-भिन्न हो गया है। नदियों की मुख्य धारा उनकी सहायक नदियों से कट गई हैं। छारण धाराएँ सूख गई हैं और उनका अतिक्रमण हो गया है। हाल में बलान नदी में इस समस्या को लेकर जनपहल की जा रही है। वहाँ भी बलान नदी को पानी देने वाली जमुवारी नदी को गंडक से काट कर अलग कर दिया गया है।

छोटी नदियों के सूखने के किस्से भी बढ़ रहे हैं।

जलनिकासी की समस्या बड़े स्तर पर देखने को मिल रही है। धीरे-धीरे नदियों में गाद जमा होने से उनकी जलप्रवाह की क्षमता घट गई है और कम जल प्रवाह भी बाढ़ का कारण बन जाते हैं।

बरसात का पानी भी मुख्य नदी में नहीं मिल पाता, जिससे फ्लैश फ्लड भी आते हैं। तटबंधों के कारण जलजमाव भी बढ़ रहा है, जिससे कृषि योग्य भूमि घट रही है।

नदियों के बाँधे जाने से ताल, तलैया, चौर आदि सूख रहे हैं और उन पर भी अतिक्रमण हो रहा है। आज दुनिया भर में तालाब, चौर, वेटलैंड आदि के महत्व को समझा जा रहा है और रामसार साइट्स घोषित करके उनको बचाने की मुहिम चल रही है।
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भूजलस्तर भी नीचे जा रहा है और पेयजल की उपलब्धता और गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो रही है। ;दरभंगा में 2024 में पेयजल का बड़ा संकट आया और प्रशासन ने लोगों को जलकूपों से सिंचाई के लिए जल नहीं निकालने का आग्रह किया।
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सूखे दिनों में नदी से बालू का अवैध खनन एक बड़ा उद्योग बन गया है जो माफिया के चंगुल में है। ये समस्या जमुई जिले में भी क्यूल नदी में है। विगत वर्षों में कोसी नदी के पूर्वी तटबंध के पास हुए खनन से नदी पूरब की तरफ बढ़ी है और 2.3 साल से वहाँ गाँव भीषण कटाव का सामना कर रहे हैं। पश्चिमी तटबंध पर वर्ल्ड बैंक के पैसे से लगातार स्पर का निर्माण होने से भी नदी पूरब की तरफ खिसक रही है। यही समस्या दक्षिण बिहार की नदियों के साथ भी है।

हाल के दिनों में कोसी-मेची नदी जोड़ परियोजना भी तूल पकड़ रही है और इसको सरकार बाढ़ के समाधान के रूप में प्रस्तुत कर रही है। हकीकत से है कि नदी जोड़ परियोजना से जलजमाव बढ़ेगा, सिंचाई नहीं मिलेगी और न ही बाढ़ राहत होगी। ये सिर्फ पैसे की बर्बादी होगी।

इस साल गंगा में आई बाढ़ से फरक्का का मुद्दा फिर से चर्चा में है। गौरतलब है कि फरक्का के निर्माण से गंगा की गाद को फैलने के लिए जगह नहीं मिलती और इसका असर मछलीपालन पर भी पड़ता है। सरकार सही ढंग से गेट का संचालन नहीं करती। इस आलोक में फरक्का के गेट खोलकर जलनिकासी की मांग उठती रहती है।
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आज भी मछुआ समुदाय फ्री फिशिंग कर पाने में सक्षम नहीं और इसमें माफियाओं का दबदबा है।

नदियों के साथ हुए हस्तक्षेपों से नदी.आधारित समुदायों का बहुत नुकसान हुआ लेकिन उनको समुचित पुनर्वास आज तक नहीं मिल। आज भी भागलपुर और कोसी के इलाकों में हजारों लोग सरकारी जमीन, बांध आदि पर गुजर-बसर कर रहे हैं जिनको कभी भी बेदखल किया जा सकता है। निकट समय में केंद्र सरकार जो कॉस्टल और रिवर एरोजन बिल लेकर आई है, उसपर बिहार सरकार अभी तक चुप है। सरकार को इसपर अपना रुख साफ करना चाहिए।

सुरक्षित क्षेत्र यानी प्रोटेकटेड एरिया, डॉल्फिन सेंचुरी के नाम पर मानव समुदायों के हक और आजीविका के श्रोत को छीना जा रहा है।

आगे की दिशा
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पूरे बिहार में नदियों पर बनी संरचनाओं का पुनर्मूल्यांकन किया जाए और गैरजरूरी संरचना को निरस्त किया जाए। बन चुके तटबंधों को वापस लेने पर विचार हो और नये तटबंध न बने।

कोशी-मेची नदी जोड़ परियोजना पर उठा रहे सवाल पर सरकार श्वेत पत्र जारी करे और लोगों की आशंकाओं का निवारण करे। आलोचनाओं के आलोक में इस तरह की सोच को वापस लेकर सरकार दीर्घकालिक और पर्यावरण संगत विकल्पों पर काम करे।

पूरे बिहार में सर्वे करवाकर आपदा प्रभावित, तटबंदों में फंसे और बांध, स्पर, सरकारी जमीन पर अनियमित रूप से बसे लोगों को पुनर्वासित किया जाए। पुनर्वास में सिर्फ घर का प्रबंध न होकर लोगों को रोजगार और आजीविका के साधन भी मुहैया करवाए जाए।

फरक्का बैराज को निरस्त करने पर विचार हो। इसके लिए जरूरत पड़ने पर अन्य राज्यों और पड़ोसी देशों से बात हो।
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मछुआ समुदाय को जल-नदी-जलाशय में फ्री फिशिंग का हक वास्तव में मिले। इसके लिए फ्री फिशिंग कानून बनाया जाए।

सर्वोच्च अदालत और राष्ट्रीय हरित अधिकरण के आदेशों के अनुसार कॉस्टल और रिवर एरोजन नीति यानी समुद्री किनारा और नदीक्षरण नीति पर बिहार सरकार कदम उठाए।
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बिहार में नये सिरे से प्रस्तावित सात बैराज परियोजनाओं को सरकार तत्काल वापस ले।

नदियों के अवैध उत्खनन पर रोक लगे। इस काम में संलग्न लोगों को कठोर दंड का प्रावधान हो।

सूख रही छोटी नदियों और छारण धाराओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किये जाए। उनपर हो रहे अतिक्रमण को रोका जाए।

किसी भी नदी या नदी घाटी में प्रस्तावित परियोजना के लिए उससे जुड़ी ग्रामसभाओं की सहमति की शर्त सशक्त रूप से लागू की जाए।

.बिहार और झारखंड के अलग होने के बाद बिहार की बदली भोगोलिक स्थिति और जलवायु परिवर्तन के नये संदर्भ में जल संसाधन, बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं आदि के नये सिरे से मूल्यांकन और आगे की नीति की दिशा तय करने के लिए तृतीय सिंचाई आयोग का गठन किया जाए।

लेखन और संपादन – महेंद्र यादव व राहुल यादुका

सहयोग – सभी प्रतिभागी संगठन

विशेष मार्गदर्शन – मेधा पाटकर, टी प्रसाद व उदय जी

इस घोषणा पत्र में भागीदार संगठन


नदी घाटी मंच (एनएपीएम), कोसी नव निर्माण मंच, गंगा मुक्ति आंदोलन, बलान नदी बचाओ जन अभियान बेगूसराय, लोक संघर्ष समिति बेतिया, बाढ़ मुक्ति अभियान दरभंगा, लखनदेई बचाओ संघर्ष समिति, एवाईपीएफ, चास वास जीवन बचाओ बागमती संघर्ष मोर्चा, नागरिक सुरक्षा मंच गोपालगंज, नदी बचाओ आंदोलन जमुई, रिजनरेटिव बिहार, पीपल्स रिसोर्स सेंटर ;पीआरसी, सामाजिक सुरक्षा अभियान, एक्सआइएसआर, जन मित्र आरा, समता मानव विकास कटिहार, लोक सुराज कटिहार, दलित महिला विकास मंच, नव चेतना मंच, कमला बचाओ अभियान, तालाब बचाओ अभियान, सौरा नदी बचाओ अभियान, नदी वापसी अभियान, दलित अधिकार मंच, नदी के हितैषी, शोधार्थी व पत्रकार।


शहरी नदियों के लिए भी कार्य करने की आवश्यकता है। शहरी नदियों को गंदे नाले के रूप में हर जगह तब्दील कर दिया गया है। उससे बचाना बेहद जरूरी है। समुचित अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र बनाए जाने चाहिए जिससे औद्योगिक कचरा नदी में प्रसंस्करण के बाद ही डाला जाए। बिहार में भी नदी किनारे अनेक रिवर फ्रंट बनाए जा रहे हैं। नदी के किनारा को कंक्रीट सीमेंट से भरकर उसके जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाता है, दरअसल यह एक रियल एस्टेट प्रोजेक्ट के जैसा है जिसमे मध्यम वर्ग की जरूरतों के लिए पूंजी का इस्तेमाल करके प्रकृति से कमाई की जा रही है। रिवर फ्रन्ट डेवलपमेंट से नदी पर परंपरागत रूप से आश्रित समुदायों की आजीविका पर भी संकट है। यह भी बंद होना चाहिए।

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