बिहार में विस्थापित मुसहरों की एक बस्ती, जिसका नाम ‘कुछ भी नहीं है’

बिहार के उत्तर पश्चिम छोर पर बसे छोटे से जिले शिवहर में शहर से बामुश्किल तीन किमी की दूरी पर शिवहर-सीतामढ़ी मार्ग के किनारे बसा है रसीदपुर गांव। इस गांव के बगीचे के पीछे एक छोर पर करीब 20-25 मुसहर परिवार का कच्ची मिट्टी, टाटा, प्लास्टिक व पुराने कपड़ों से ढका घर है।

इस बस्ती के 50 साल के रामबालक मांझी कहते हैं, “जब सड़क का निर्माण किया जा रहा था तो रसीदपुर से हमलोगों को यहां लोकर बसाया गया और प्रत्येक परिवार को 12 धुर जमीन बसने के लिए दिया लेकिन उस समय हमें रास्ता नहीं दिया। हमारे टोले में आने के लिए सड़क नहीं है, रास्ते में बारिश में पानी जमा हो जाता है, जिससे लोगों को आने-जाने में दिक्कत होती है”। अलबत्ता इस बस्ती या टोले का कोई नाम भी अबतक पक्का नहीं है।

रामबालक मांझी जो प्रवासी श्रमिक का काम करते हैं, वे कहते हैं कि बस्ती में बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं।

रामबालक मांझी ने इस संवाददाता में इस बस्ती का नाम बजरंगी टोला बताया, लेकिन दूसरे लोग इस नाम की पुष्टि नहीं करते हैं। इस बस्ती में 21 वर्षीय वरुण मांझी एक ऐसे युवा मिले जो पढाई कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि वे शिवहर कॉलेज में ग्रेजुएशन की पढाई कर रहे हैं। वरुण मांझी कहते हैं कि इस बस्ती का नाम कुछ भी नहीं है, ऐसे लोग इसे नया टोला के नाम से जानते हैं। वे कहते हैं कि एनएच 104 के चौड़ीकरण के दौरान रसीदपुर से हटाये जाने के बाद लोग यहां आकर बसे हैं।

मुसहरों की इस बस्ती का अबतक कोई नामकरण नहीं हुआ है, इन्हें एनएच विस्तारीकरण के दौरान मुख्य मार्ग से यहां लाकर बसाया गया।

बस्ती के लोग बुनियादी सुविधाओं के साथ रोजगार के संकट का सामना भी करते हैं, क्योंकि इनके पास कृषि भूमि या किसी तरह का व्यापार या नौकरी नहीं है। रामबालक मांझी कहते हैं, “हम पंजाब में कमाते हैं और हमारे बच्चे गुजरात में मजदूरी करते हैं”। रामबालक कहते हैं, “यहां कोई रोजगार नहीं है, अगर हम पंजाब कमाने नहीं जाएंगे तो भूखे मर जाएंगे”।

बस्ती की प्रमीला देवी जो कहती हैं कि बारिश होने पर पानी जमा हो जाने से काफी दिक्कत होती है।

इस बस्ती की प्रमीला देवी कहती हैं उनके पति राम प्रवेश मजदूरी करते हैं, वे लोग पहले सड़क पर झुग्गियों में रहते थे, लेकिन रोड के चौड़ीकरण के लिए रोड के किनारे उनकी बसावट वाली जमीन ले ली गई और उन्हें यहां बसाया गया। इस बस्ती की निशा गोंसाई कहती हैं – हमारी बस्ती में न लाइट है, न रोड और बारिश होने पर पानी जमा हो जाता है। उनके पति टोकरी बना कर बेचते हैं, जिससे परिवार का गुजर होता है।

इस बस्ती के 60 वर्षीय अकलू मांझी कहते हैं, “हमारे पास सड़क तक आने-जाने का रास्ता नहीं है, लोग खूंटा गाड़ कर अपनी जमीन को घेर देते हैं, गलती से अगर हम किसी की जमीन या खेत में चले जाते हैं तो लोग हमें गालियां देते हैं”। रोड से मुसहरों की इस बसावट की दूरी 250 से 300 मीटर के बीच है।

बस्ती के बच्चे। बस्ती में बुनियादी सुविधा के रूप में बस एक चापानल है।

बजरंगी टोला के 35 साल के गोनू मांझी कहते है, वे अहमदाबाद में मजदूरी करते हैं और 18-19 साल से बाहर काम कर रहे हैं। गोनू मांझी बताते हैं कि बस्ती के करीब 25 लोग बाहर मजदूरी करने जाते हैं। गांव के अधिकतर युवा बाहर मजदूरी करते हैं, जो समय-समय पर गांव आते रहते हैं, वहीं सामान्यतः 50-55 साल से अधिक उम्र के लोग गांव में रहते हैं और आसपास मजदूरी करते हैं या फिर घर पर ही रहते हैं। अधिक उम्र के ऐसे लोग भी पूर्व में अन्य राज्यों में प्रवासी श्रमिक के रूप में काम कर चुके होते हैं और उम्र की ढलान पर अपने पैतृक स्थल को स्थायी ठिकाना बना लेते हैं। यहां के लोगों मुख्य रूप से पंजाब व गुजरात मजदूरी करने जाते हैं।

गोनू मांझी जो गुजरात में मजदूरी करते हैं। उनका कहना है कि आठ महीने वे बाहर काम करते हैं, बाकी आठ महीने गांव में रहते हैं।

गोनू मांझी कहते हैं कि उन्हें गुजरात में 12 हजार रुपये महीने की मजदूरी मिलती है, आठ महीने वहां कमाते हैं और बाकी चार महीने गांव में रहते हैं। गोनू का परिवार गांव में ही रहता है और वे अकेले मजदूरी करने जाते हैं। वे कहते हैं गांव पर रहने के दौरान भी कभी-कभार मजदूरी मिलती है तो कर लेते हैं, लेकिन यहां की मजदूरी से पेट नहीं भर सकता। वे कहते हैं हमारे लिए काम करने बाहर जाना मजबूरी है।

ग्रामीणों की शिक्षा का स्तर बहुत कम है और यहां कोई बुनियादी सुविधा नहीं है। उल्लेखनीय है कि बिहार सरकार ने मुसहरों को महादलित के रूप में चिह्नित किया है और उनके लिए कई तरह की कल्याणकारी योजनाएं चलाने का दावा करती रही है।

(राहुल सिंह की रिपोर्ट)

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