कार्बन फाइनेंस स्कीम में शामिल हुए झारखंड के किसानों को किस तरह मिलेगा इसका फायदा?

झारखंड में बिरसा हरित ग्राम योजना के तहत परती जमीन पर बागवानी लगाने वाले किसानों को अगले कुछ महीनों में कार्बन फाइनेंस का पैसा मिलने वाला है। इसका मकसद बागवानी के बेहतर रख-रखाव में किसानों की मदद करना है। फिलहाल 18 जिलों में चल रही कार्बन फाइनेंस योजना में अभी तक 30 हजार से ज्यादा लाभुक जुड़े चुके हैं। लगभग सवा लाख लाभुकों को कार्बन फाइनेंस से जोड़ने की योजना है।

विशाल कुमार जैन

पिछले साल जब अजरबैजान की राजधानी बाकू में दुनिया भर के देश और कई संगठन कार्बन ट्रेडिंग के नियमों पर मुहर लगा रहे थे, तब वहां से करीब 3,800 किलोमीटर दूर भारत में झारखंड के चिलदरी गांव में लोग अगले कुछ महीनों में कार्बन फाइनेंस का पैसा मिलने को लेकर उत्साहित थे। 

झारखंड में मटर और दूसरी सब्जियों के लिए मशहूर रांची जिले के बेड़ो प्रखंड का यह गांव भी अब कार्बन फाइनेंस में शामिल हो चुका है। इस गांव में बिरसा हरित ग्राम योजना के तहत परती जमीन पर लगे फलदार पेड़ों की बागवानी के जरिए कार्बन फाइनेंस किया जाएगा। 

झारखंड के आर्थिक सर्वेक्षण (2023-24) के मुताबिक राज्य में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए मनरेगा के तहत साल 2016-17 से बिरसा हरित ग्राम योजना (बीएचजीवाई) चल रही है। इस योजना के तहत 1,35,122 किसानों के साथ 1,16,637 एकड़ में आम और दूसरे फलदार पौधे लगाए गए हैं। योजना के तहत अधिकतम एक एकड़ में पात्र किसानों को पांच साल तक आर्थिक के साथ-साथ फलदार पौधे, खाद जैसी मदद दी जाती है। अनुमान है कि इससे हर परिवार को सालाना 50 हजार रुपए से अधिक का लाभ होता है।

लेकिन, यह प्रश्न उठा कि पांच साल के बाद सीमांत किसान अपनी बागवानी की देखभाल किस तरह से करेंगे। इस समस्या से पार पाने के लिए योजना को कार्बन फाइनेंस स्कीम से जोड़ा गया है, जिससे आगामी 20 सालों तक लाभुकों को अतिरिक्त आय होती रहेगी। 

आमदनी बढ़ाने का जरिया

मोंगाबे हिंदी ने इस गांव का दौरा कर बीएचजीवाई के लाभुकों से बात की और कार्बन फाइनेंस के बारे में विस्तार से जाना। लाभुक नमिता देवी ने बताया कि उन्हें झारखंड सरकार के ग्रामीण विकास विभाग के जरिए इस पहल के बारे में पता चला, जिसे ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन (टीआरआईएफ) और इंटेलिकैप एडवाइजरी सर्विसेज आगे बढ़ा रहे थे। 

लेकिन, ऐसा भी नहीं था कि गांव वाले आसानी से योजना में शामिल होने के लिए तैयार हो गए। दरअसल, इसमें शामिल होने के लिए पात्र लाभुकों से फलदार पेड़ों और बैंक अकाउंट की जानकारी डिजिटल तरीके से मांगी गई थी। दूसरा लाभुकों को डिजिटल तरीके से हस्ताक्षर भी करना था, जिससे लोगों में धोखाधड़ी की आशंका और ज्यादा बढ़ गई।

इस गांव की नमिता देवी बताती हैं, “पिछले कुछ अनुभवों के बाद हम सबको यह सब करने में डर लग रहा था। फिर पंचायत के मुखिया से सलाह-मशविरा हुआ और उन्होंने हमें कार्बन फाइनेंस के बारे में समझाया। इसके बाद गांव के कई लोग इसमें शामिल होने के लिए राजी हुए।”

दरअसल, पंचायत के निवासी राजू ने मोंगाबे हिंदी को इस डर की असल वजह बताई, “हमारे ब्लॉक की निहालू कपरिया पंचायत में गैस कनेक्शन रिन्यूएल कराने के नाम पर कुछ लोगों का बायोमीट्रिक कराया गया था। इसके बाद लोगों के खाते से अवैध तरीके से पैसे निकाल लिए गए थे। तब से ही लोग डरे हुए थे।”

नमिता देवी ने 2021-22 में अपनी परती जमीन पर झारखंड सरकार की मदद से आम के 112 पेड़ लगाए थे। पेड़ अभी छोटे हैं, लेकिन पिछले सीजन में उन्होंने आठ से दस हजार रुपए के आम बेचे हैं। साल 2024 में कार्बन फाइनेंस स्कीम में शामिल होने वाली नमिता बताती हैं कि सैटेलाइट के जरिए यह तय किया जाएगा कि हमारे पेड़ ने कितना कार्बन सोखा है। इस आधार पर हमें अगले 20 सालों तक हर साल भुगतान होता रहेगा।

बिरसा हरित ग्राम योजना के तहत परती जमीन पर लगे फलदार पेड़ों की बागवानी के जरिए कार्बन फाइनेंस किया जाता है। तस्वीर- विशाल कुमार जैन/मोंगाबे हिंदी।

टीआरआईएफ के निदेशक अशोक कुमार ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “राज्य में मनरेगा के तहत बिरसा हरित ग्राम योजना का मकसद यह है कि पहले लोग अपनी जमीन पर मजदूरी करके आय प्राप्त करें, फिर उन्हें आजीविका का स्थायी जरिया मिले। लाभुक अपनी परती जमीन पर बागवानी लगा सकते हैं। एक एकड़ के मॉडल में 112 फलदार और 80 इमारती पौधे लगाए जाते हैं।”

अपनी बंजर जमीन पर बीएचजीवाई के तहत पेड़ लगाने वाली रूत खेस कार्बन फाइनेंस को बेहतर स्कीम बताती हैं। उन्होंने मोंगाबे हिंदी से कहा, “एक तो लाभुक को अतिरिक्त आय हो रही है। दूसरा पर्यावरण भी शुद्ध हो रहा है। किसान भी ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। जब पैसा मिलने लगेगा, तो किसान अपने बगीचे का पूरा ध्यान रखेगा और उस पर मेहनत करेगा।” 

कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने भारत में कृषि क्षेत्र के लिए स्वैच्छिक कार्बन बाजार (वीसीएम) को बढ़ावा देने के लिए रूपरेखा तैयार की है, ताकि छोटे और सीमांत किसानों को कार्बन क्रेडिट का फायदा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। इसके लिए दिसंबर 2023 में कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना को अधिसूचित किया गया था। सरकार का मानना है कि किसानों को कार्बन बाजार से परिचित कराने से उनकी आय में बढ़ोतरी के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल कृषि पद्धतियों में तेजी आ सकती है। 

भारत में कार्बन ट्रेडिंग के ऑफसेट तंत्र के तहत चुने गए क्षेत्रों में कृषि भी शामिल है। इस योजना के जरिए, संस्थाएं/किसान कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र (सीसीयू) जारी कराने के लिए ग्रीन हाउस गैसों को कम करने से जुड़ी परियोजनाओं को पंजीकृत करा सकते हैं।

ग्राम पंचायत की ही रहने वाली गीता देवी ने मोंगाबे हिंदी से कहा कि जो किसान इस स्कीम में शामिल होने से छूट गए हैं, अब वे भी इसमें शामिल होना चाहते हैं। वह कहती हैं कि पेड़ जैसे-जैसे बढ़ेगा या पुराना होगा, उतना ज्यादा पैसा सीधे लाभुक के खाते में आएगा।

गीता देवी कहती हैं कि जल्द ही बागानों की नपाई शुरू होगी और उसके बाद सीसीयू क्रेडिट के हिसाब से किसानों को उनके खाते में पैसा मिलेगा।

ऐसे काम करती है योजना 

झारखंड में चल रही बिरसा हरित ग्राम योजना के तहत 2018 के बाद एक एकड़ की परती जमीन पर बागवानी लगाने वाले कार्बन फाइनेंस के लिए आवेदन कर सकते हैं। प्रत्येक  किसान को कार्बन फाइनेंस से अगले 20 साल में कुल 60 हजार रुपए की अतिरिक्त आमदनी होगी। 

इस पहल का काम फिलहाल 18 जिलों में चल रहा है। अभी तक 30 हजार से ज्यादा लाभुकों ने योजना का लाभ उठाया है। इस साल जुलाई-अगस्त तक पहली किस्त सीधे लाभुकों के खाते में क्रेडिट होने की संभावना है। अगले एक साल तक लगभग सवा लाख लाभुकों को कार्बन फाइनेंस से जोड़ने की योजना है। 

इस कार्बन फाइनेंस के लिए जो फंड चाहिए, उसे रेबो बैंक (नीदरलैंड का को-ऑपरेटिव बैंक) की ओर से उपलब्ध कराया जा रहा है। इसकी अकाउंटिग की प्रक्रिया ACORN द्वारा पूरी की जा रही है। वहीं, इसे जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से ट्रांसफ़ॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन और इंटेलिकैप इंडिया पर है। 

कार्बन फाइनेंस की स्कीम कुछ इस तरह काम करती है। सबसे पहले हर योग्य लाभुकों के साथ एक समझौता किया जाता है। ACORN की ओर से बनाए गए पोर्टल पर लाभुकों को रजिस्टर किया जाता है। इसके बाद किसान के प्लॉट की पॉलिगॉन मैपिंग की जाएगी। इसमें जियो-कॉर्डिनेट्स के तहत उसके प्लॉट में जितने भी पौधे हैं, सब आ जाएंगे। इस पूरी प्रक्रिया की मॉनिटरिंग सैटेलाइट के जरिए होगी जिसे सैट-इंटेलिजेंस कहा जाता है। 

इसमें मुख्य रूप से दो इंडिकेटर होंगे। पेड़ के तने की मोटाई कितनी है और पेड़ का आच्छादन। इससे पता लगाया जाएगा कि किसी खास पेड़ ने कितना कार्बन सोखा है। यह कैलकुलेशन पूरी तरह कंप्यूटर से होता है और इसमें किसी तरह का मानव दखल नहीं है। जैसे ही इसकी गणना होगी, लाभुक के अकाउंट में कार्बन रिमूवल यूनिट (सीआरयू) क्रेडिट हो जाएगा। इसी यूनिट के आधार पर लाभुकों को सीधे बैंक खाते में भुगतान होगा। 

रांची जिले के बेड़ो प्रखंड में मनरेगा के तहत हुए कामों को चित्र के जरिए उकेरा गया है। तसवीर: विशाल कुमार जैन/मोंगाबे हिंदी।

टीआरआईएफ के संयुक्त निदेशक करीमुद्दीन मलिक ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “अगर कार्बन फाइनेंस की दर की बात करें, तो हर पोर्टल पर अलग-अलग दरें हैं। लेकिन, ACORN के पोर्टल पर फिलहाल एक सीआरयू की कीमत 35 से 40 यूरो है। यूरो की कीमत भुगतान वाले दिन की ली जाएगी। जितना भुगतान होगा, उसका 80 फीसदी किसानों के अकाउंट में सीधे क्रेडिट हो जाएगा। 

जानकारों का कहना है कि इस पहल से सीमांत किसानों की आय बढ़ेगी जिससे बागवानी की बेहतर रख-रखाव में मदद मिलेगी। उनका कहना है कि उत्पादन बढ़ने से फलों की सप्लाई चेन बन सकती है और खाने-पीने की चीजें बनाने वाले उद्योग आ सकते हैं। संभावना है कि आम की जो मल्लिका किस्म है उसकी बंपर उपज होगी। फिर इसका निर्यात भी हो सकेगा। इससे किसानों की बेहतर आय पक्की होगी।“ 

वहीं जलवायु और ऊर्जा के क्षेत्र में कंसल्टिंग सेवा देने वाली इंटेलिकैप एडवाइजरी सर्विसेज के एसोसिएट कंसल्टेंट अनुराग धीर कहते हैं, “क्लाइमेंट चेंज का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव छोटे किसानों पर होता है। फसल बर्बाद होने से वे कर्ज के जाल में उलझ जाते हैं। इसलिए, हमारा मकसद है कि एक तो कार्बन फाइनेंस से किसानों को अतिरिक्त आय मिले। दूसरा, उनके पास अपनी संपत्ति हो और जब बारिश नहीं हो तब भी वे उससे कमाई कर सकें।” 

सीमांत किसानों को अतिरिक्त आय से जोड़ना जरूरी

दुनिया भर की तरह भारत में भी कार्बन फाइनेंस मार्केट धीरे-धीरे आकार ले रहा है। पिछले साल 23 अक्टूबर को मीडिया में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक आठ राज्यों-उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 80 हजार सीमांत किसानों को भी देश में पहली बार कार्बन क्रेडिट का पैसा मिलने जा रहा है। ये किसान करीब 40 हजार हेक्टेयर में धान, कपास, गेहूं, मक्का, गन्ना वगैरह उगाते हैं। 

भारत सरकार ने भी पिछले साल जून में कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) को अधिसूचित करके भारतीय कार्बन मार्केट (ICM) बनाया है। इसके तहत देश में कार्बन ट्रेडिंग का ढांचा तैयार किया गया है और रुपरेखा बनाई गई है। 

काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरनमेंट और वॉटर में सीनियर फेलो वैभव चतुर्वेदी मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “भारत में कार्बन मार्केट में कुछ बड़ी कंपनियां काम कर रही हैं। अभी तक हम कार्बन का मूल्य नहीं लगाते थे। अब ऐसा हो रहा है। भारत सरकार का मकसद भी यही है कि खेती, फोरेस्ट्री और दूसरी चीजों में कार्बन सोखने की जो क्षमता है, उसका फायदा उठाया जाए। 

स्वैच्छिक कार्बन बाजार के पिछले साल 2024 के आखिर तक 3 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद थी। रिसर्च बताता है कि 2030 तक यह बाजार और आगे बढ़कर 10 अरब अमेरिकी डॉलर से लेकर 40 अरब बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगा।

हालांकि, जानकार इस योजना को छोटे किसानों के हित में बताने के साथ ही बारीकियों पर ध्यान देने का सुझाव देते हैं। उनका कहना है कि किसानों के लिए समझौते की कानूनी भाषा को समझना थोड़ा मुश्किल है। 

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डबल्यूआरआई) के सुब्रत चक्रवर्ती मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “अभी तक कार्बन क्रेडिट का जो हिसाब-किताब रहा है, उसमें ज्यादातर हिस्सा प्रोजेक्ट डेवलपर को ही मिल जाता है। इस संदर्भ में यह स्कीम अच्छी पहल है। अगर ये आय किसानों तक पहुंचती है, तो सूखे से फसल खराब होने पर उन्हें कुछ राहत जरूर मिलेगी।”

यह दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैस में कमी लाने की स्वैच्छिक योजना है। किसानों से कार्बन क्रेडिट उन उद्योगों द्वारा खरीदा जा सकता है, जो विमानन, खनन या उर्वरक के क्षेत्र में काम करते हैं और अपने बिजनेस की प्रकृति के कारण अपने कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं कर सकते हैं। हालांकि, योजना में यह अहम है कि सीसीयू को किस तरह बेचा जाता है।

चक्रवर्ती कहते हैं, “अगर यूरोप के मार्केट में बेचा जाता है, तो वहां किसी संस्था से संपर्क करके एमिशन रिडक्शन पर्चेज एग्रीमेंट किया जाएगा। इसमें खरीदने वाले को हर साल तय मात्रा बेचने का वायदा किया जाता है और वोल्यूम तय होने से आमदनी तय होती है। दूसरा, स्पॉट मार्केट है जहां कीमतें बदलती रहती हैं। इसमें आप जनरेट हुए कार्बन क्रेडिट की जानकारी सभी कंपनियों को देते हैं। फिर उनके साथ कीमतें तय होती हैं।”  

झारखंड समेत पूरे भारत में औसत जोत का आकार तेजी से घटने से किसानों की आमदनी भी घटी है। यह 1970-71 में 2.28 हेक्टेयर से घटकर 1980-81 में 1.84 हेक्टेयर, 1995-96 में 1.41 हेक्टेयर तथा 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर हो गया। दूसरी तरफ, झारखंड में सीमांत किसानों की संख्या बढ़ गई है। साल 2010-11 में सीमांत किसानों की संख्या 1848 हजार थी। वहीं, 2015-16 में यह आंकड़ा 6.13 फीसदी बढ़कर 1962 हजार पर पहुंच गया। इस दौरान सीमांत किसानों के पास जमीन का रकबा 764 हजार हेक्टेयर से कम होकर 754 हजार हेक्टेयर पर आ गया। राज्य में 70 फीसदी से ज्यादा किसान सीमांत है। लगभग आधे किसानों के पास 0.4 हेक्टेयर से भी कम जमीन है।

झारखंड में करीब 18 लाख हेक्टेयर में खेती होती है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का एक-चौथाई से भी कम है। राज्य में सिंचित भूमि महज 1.6 लाख हेक्टेयर है जो खेती के रकबे का 9.3 फीसदी है। इसलिए यहां की क्रॉपिंग इंटिसिटी 126 फीसदी है। ऐसे में छोटे किसानों के लिए अतिरिक्त आय की व्यवस्था करना बेहद जरूरी है, ताकि उन्हें जीवनयापन में मदद मिल सके। चक्रवर्ती कहते हैं कि इस स्कीम से कुछ हद तक यह लक्ष्य पूरा हो सकता है, लेकिन वह निगरानी पर जोर देते हैं। 

वह कहते हैं, “आने वाले समय में निजी सेक्टर भी दूसरे तरीकों से ऐसी योजनाओं को आगे बढ़ाएगा। ऐसी स्थिति में इन पर निगरानी रखना बहुत जरूरी होगा। सरकारों को यह पक्का करना होगा कि किसानों के अधिकार सुरक्षित रहें। साथ ही, सरकार को भी जलवायु परिवर्तन के इस दौर में राहत पहुंचाने का अतिरिक्त जरिया मिलेगा।

वहीं, चतुर्वेदी प्रोजेक्ट के बाद भी पेड़ों को बचाए रखने पर जोर देते हैं। उन्होंने कहा, “इन योजनाओं में खास बात यह है कि लगाए गए पौधे के हिसाब से नहीं, बल्कि बचे हुए जीवित पेड़ और कार्बन सोखने की उनकी क्षमता के आधार पर पैसे मिलेंगे। साथ ही, प्रोजेक्ट खत्म होने के बाद पेड़ों को काटने की बजाए उन्हें बचाए रखने का सिस्टम बनाना बहुत जरूरी है।”

(यह खबर हमने मोंगाबे हिंदी से साभार प्रकाशित की है। आप मूल वेबसाइट पर जाकर इस लिंक के जरिये इस खबर को पढ सकते हैं।)

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