वाल्मीकि टाइगर रिजर्व :  हमारे जंगल का अपना एक पारिस्थितिकी तंत्र होता है

वाल्मीकि वन क्षेत्र अपने साल के विशाल पेड़ों की वजह से विशेष तौर पर आकर्षक लगता है। यहां बाघों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। तीन सुंदर नदियों इस क्षेत्र से होकर गुजरती हैं। इस आलेख को आप इस क्षेत्र का याता वृतांत समझ कर भी पढ सकते हैं, जिसमें प्रकृति, जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का उल्लेख है।

राहुल सिंह


एक वरिष्ठ वन अधिकारी ने एक बार मुझसे कहा था कि कभी मौका मिले तो वाल्मीकि टाइगर रिजर्व जाइएगा। भारतीय वन सेवा के लंबे कार्यकाल को लेकर उन्होंने अपना निजी अनुभव साझा करते हुए मुझसे कहा था, “मैंने कई या देश के ज्यादातर टाइगर रिजर्व देखा है और वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व ने मुझे विशेष तौर पर प्रभावित किया है”। वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के प्रति उन्होंने खुद के आकर्षण की वजह उन्होंने वहां साल(सखुआ) के मोटे लंबे पेड़ बताया था। ये पेड़ कुछ जगहों पर काफी सघन हैं।


बहरहाल, यह उनके शब्द हैं। मैंने तो देश के तकरीबन 36 बाघ या व्याघ्र अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व) में तीन ही देखा है – झारखंड का पलामू टाइगर रिजर्व, पश्चिम बंगाल का सुंदरबन टाइगर रिजर्व और बिहार का वाल्मीकि टाइगर रिजर्व। इनमें से प्रत्येक टाइगर रिजर्व मुझे विशिष्ट लगता है और हर किसी की अपनी खूबियां व आकर्षण हैं। पलामू का जंगल मुझे आकर्षित करता है तो सुंदरबन के डेल्टा, सुंदरी और पानी। हर प्राकृतिक स्थल मुझे सम्मोहित करता है और यह सम्मोहन उतना अधिक होता है, जितना उसमें मानव व विकासवादी हस्तक्षेप कम से कम होता है। तो हम फिलहाल बात वाल्मीकि टाइगर रिजर्व की ही करेंगे, जहां मैं इस साल की गर्मी की छुट्टी में गया था।

वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व में एक पुराना पेड़ जो जीर्ण हो गया है। पुराने व मृत पेड़ों को एक आहार चक्र व वन की खुद के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए हटाया नहीं जाता। Photo – Rahul Singh.


वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व में पर्यटकों के प्रवेश के तीन केंद्र हैं
और तीनों एक-दूसरे से काफी दूरी पर हैं, लेकिन मुख्य केंद्र वाल्मीकिनगर पहुंचने के लिए ट्रेन मार्ग से बगहा पहुंचना होता है। बगहा मुजफ्फरपुर-गोरखपुर रेल मार्ग पर स्थित है। बगहा से करीब 43 किमी की दूरी पर स्थित वाल्मीकिनगर जाने के लिए यहां से बस, टैक्सी या ऑटो की सवारी करनी होती है। बगहा से आगे बढने के बाद ही हरियाली व वन क्षेत्र शुरू हो जाता है और रास्ते का दृश्य आकर्षक होता है। वाल्मीकिनगर पहुंचने से पहले ही कई होटल व गेस्ट हाउस दिखने लगते हैं तो यह संकेत देते हैं कि हम इस जगह के करीब पहुंच गए हैं।

तसवीर में आपको ये झाड़ियां या लत सामान्य दिख सकती हैं, लेकिन ये काफी जटिल होती हैं। ये वन में बनाए गए सड़क के 50 मीटर के दायरे में स्थित हैं, अंदरूनी हिस्से में इसकी सघनता का अंदाज लगाया जा सकता है। इसमें पैर उलझ जाते हैं और चलना मुश्किल होता है।

Photo – Rahul Singh.


वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व का कोर एरिया 909.86 वर्ग किमी में है और 2022 की आखिरी उपलब्ध जनगणना के अनुसार, 54 बाघ हैं। उस समय यहां छह अर्द्ध वयस्क बाघ और आठ शावक दर्ज किए गए थे। यहां जो बाघ हैं, वे बंगाल रॉयल नस्ल के हैं। यह देश के बाघ अभ्यारण्यों में 13वें नंबर पर है। 2018 की गणना में यहां 31 बाघ दर्ज किए गए थे। यानी चार साल के अंतराल पर 75 प्रतिशत संख्या वृद्धि दर्ज की गई।

हमारे गाइड ने बाघों को लेकर एक और महत्वपूर्ण जानकारी दी – सामान्यतः बाघ आदमखोर नहीं होते हैं, वे दो ही स्थितियों में ऐसा हो सकते हैं – एक तो अगर शिकार के दौरान उसका केनाईन दांत टूट जाता है तो यह फिर वह बूढा हो जाता है तो। इसके पीछे तर्क यह है कि मनुष्य का मांस मुलायम होता है और केनाईन दांत टूट जाने से उसे खा पाना उसके लिए आसान हो जाता है, दूसरी बूढा होने की वजह से शारीरिक शक्ति कम होती है तो मनुष्य का शिकार करना आसान हो सकता है, क्योंकि मनुष्य तेजी से भाग नहीं सकता। उन्होंने बताया कि वाल्मीकि टाइगर रिजर्व में भी एक बाघ कुछ साल पहले मैनइटर या आदमखोर हो गया था और उसने कई लोगों की हत्या कर दी तो वन विभाग के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डेन के आदेश से उसे गोली मार दी गई। यह आखिरी विकल्प था।

हिमालय की तराई में स्थित वाल्मीकि टाइगर रिजर्व नेपाल के चितवन जंगल या चितवन नेशनल पार्क से लगा हुआ है जो अपनी विशिष्टताओं के लिए मशहूर है। इन दोनों के बीच नदियां आदि विभाजक रेखा हैं।

नेपाल के चितवन वन क्षेत्र में स्थित वाल्मीकि आश्रम जाने के रास्ते में तमसा नदी का दृश्य।

वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के अंदर करीब 50 गांव हैं, जहां उरांव आदिवासी, मुसहर, धांगड़ व अन्य जातियों के लोग रहते हैं। टाइगर रिजर्व के किनारे-किनारे 250 गांव बसे हैं।


टाइगर रिजर्व के गाइड विजेंद्र कुमार सिंह ने हमें बताया कि यह वन क्षेत्र 1950 तक बेतिया राज के अंतर्गत था, 1951-52 में रामनगर के राजा के अधिकार क्षेत्र में चला गया, फिर बाद में सरकार के नियंत्रण में आया। 1978 में इसे वन्य अभ्यारण्य घोषित किया गया। 1990 में इसे नेशनल पार्क घोषित किया गया और 1994 में टाइगर रिजर्व। उस वक्त रैकिंग में 18वें नंबर पर था। इससे पता चलता है कि इसने बाघ अभ्यारण्यों की सूची में इसने अपना स्थान सुधारा है।

दो डिवीजन व आठ रेंज में बंटे वाल्मीकि टाइगर रिजर्व में 320 प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं और 86 प्रकार के पेड़ हैं। यहां 56 प्रकार की जड़ी-बूटी की पहचान की गई है। यहां 1952 में आखिरी बार चीता पाया गया था। बिहार का राज्य पशु गौर यहां पाया जाता है। पांच तरह के हिरण यहां मौजूद हैं। यहां बाघ के अलावा कॉमन लैपर्ड, क्लाउडेड लैपर्ड, जंगली कुत्ते, गोराल, भेड़िया, जंगली सुअर, गैंडा आदि पशु हैं।

वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के अंदर का एक संरक्षित क्षेत्र, जहां प्लास्टिक का सामान न लेकर जाने की सख्त चेतावनी दर्ज है।


वाल्मीकि जंगल में सावे घांस बड़ी मात्रा में मिलता है, जिससे रस्सी व कागज बनता है। यहां लाल मिट्टी है, जिसमें आयरन ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है।


माइकेनिया-लियाना की लतें


भारतीय वन्य जीव संस्थान से प्रशिक्षित हमारे गाइड विजेंद्र कुमार सिंह ने बताया कि वाल्मीकि टाइगर रिजर्व में माइकेनियालैंटाना की लतें हैं। ये अनपेक्षित या अनावश्यक लतेें हैं और नुकसानदायक होती हैं। माइकेनिया की लतें दो तरह की होती हैं, एक नीचे जमीन पर बढती है और दूसरा पेड़ पर।

माइकेनिया अन्य पौधों व पेड़ों के बढने में अवरोध उत्पन्न करता है। यह मिट्टी के पोषक तत्वों, पानी स सूर्य की रोशनी को पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करता है। यह पेड़ों को ढक कर प्रकाश में अवरोध पैदा कर सकता है। पुराने पेड़ों की तुलना में यह नए पेड़ों के लिए अधिक मुश्किलें खड़ी करता है।

वहीं, वाल्मीकि व्याघ्र अभ्यारण्य में लियाना की दो प्रजातियां मिलती हैं – जिनका हिंदी नाम मोहलान व मोहाय है। लियाना की लत पेड़ों पर चढ कर उसे आगे नहीं बढने देती है। इससे दूसरे छोटे पौधों व पेड़ों को धूप, रोशनी मिलती है, जिससे उन्हें आगे बढने में मदद मिलती है। यह कई बार खुद के ट्रंक में इतना पानी भर लेती हैं कि विशालकाय पेड़ को भी गिरा देती हैं।

पेड़ों पर लगने वाली ये लत या लता इतनी सघन व ताकतवर होती हैं कि वे पेड़ों के बढने की रफ्तार को कम कर देती हैं और कुछ लत ऐसी होती हैं जो विशाल पेड़ को भी गिराने की क्षमता रखती हैं।


गाइड ने बताया कि जंगल में सीमित वन प्रबंधन किया जाता है। ट्रांजिट लाइन के 50-50 मीटर दोनों ओर झाड़ियों व पेड़ों की हल्की सफाई की जाती है। इससे व्यू प्वाइंट बनता है और पशुओं को देख पाने की संभावना बढ जाती है। ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि वन्य पशुओं बिल्कुल मनुष्य के गुजरने के रास्ते के करीब न हों और उन्हें जंगल सफारी के वाहनों की आवाजाही की समझ हो और दोनों के बीच एक दूरी बनी रहे ताकि जानवरों को नुकसान न हो। दूसरा ऐसा किए जाने से वन्य पशुओं को देख पाने की संभावना अधिक होती है। जंगल में जरूरत के मुताबिक जगह-जगह पर वॉटर हॉल बनाए जाते हैं, ताकि पशुओं को पानी की सुविधा हो। स्वतः या अन्य वजहों से गिरने वाले किसी विशाल से विशाल पेड़ को हटाया नहीं जाता, बल्कि उसे वहीं छोड़ दिया जाता है। जबकि उन पेड़ों को बेचने से वन विभाग को अच्छी आय हो सकती है। हमारे गाइड ने बताया कि यह जंगल का एक प्राकृतिक चक्र या साइकल है, इसमें हस्तक्षेप उचित नहीं होता। पुराने पेड़ गिरते हैं तो वहीं सड़ते-गलते हैं और बहुत सारे कीड़े-मकौड़े, जीव-जंतुओं के लिए शरण स्थल व भोजन का काम करते हैं। उन कीड़े-मकौड़े व छोटे जीव को पक्षी व दूसरे जीव खाते है। यह एक खाद्य चक्र है।

नेपाल के चितवन में स्थित वाल्मीकि आश्रम जाने के रास्ते में पहले सोना या सोनभद्र नदी मिलती है। सोनभद्र के बाद तमसा नदी से गुजरना होता है। यह एक आनंददायक अनुभव होता है।


आकर्षक नदियों वाला क्षेत्र और दुर्लभ शालीग्राम पत्थर


इस विशाल वन क्षेत्र के जिस इलाके में हम घूमे वहां तीन प्रमुख नदियां हैं – गंडक, तमसा व सोना या सोनभद्र। तमसा व सोनभद्र यहां वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के वन विभाग के गेस्ट हाउस से बामुश्किल पौने किमी की दूरी पर मिलती है। गंडक में मिलने से कुछ किमी पहले सोनभद्र व तमसा नदी आपस में मिलती हैं। गंडक नदी इस जगह पर भारत व नेपाल की सीमा बनाती है। तमसा नदी भी सीमा का काम करती है। नेपाल के चितवन वन क्षेत्र में स्थित वाल्मीकि आश्रम जाने के लिए तमसा नदी पार करना होता है। यह आश्रम तमसा नदी के किनारे स्थित है। वहां पर सशस्त्र सीमा सुरक्षा बल का कैंप है जिसमें तैनात जवान सीमा की निगरानी करते हैं और आने-जाने वाले आगंतुकों का विवरण भी रखते हैं। दो विशाल जंगल के बीच स्थित तमसा नदी उसके लिए विभाजक रेखा का काम करती है और काफी आकर्षक है।


वहीं, इन तीनों नदियों का संगम स्थल दोनों ओर है – भारत की नेपाल की ओर। किसी स्थानीय व्यक्ति से आप बात करेंगे तो वे कहेंगे हमारे एवं नेपाल के बीच गंडक ही बॉर्डर है और इसलिए नदी आधी हमारी, आधी उनकी।

गंडक नदी में आकर मिलती तमसा व सोनभद्र। तमसा व सोनभद्र संगम स्थल से थोड़ा पहले आपस में मिलती हैं, फिर वे गंडक से आकर मिलती हैं।

एक व्यक्ति ने मुझसे यहीं थोड़ा आगे गंडक पर बने बैराज का जिक्र करते हुए उसके खंभों की संख्या बताते हुए कहा कि इसमें आधे खंभे हमारे, आधे उनके। यह उनकी जानकारी, धारणा व समझ है, हम इसके तकनीकी पक्ष से बहुत वाकिफ नहीं हैं। हालांकि गंडक पर इस बैराज का प्रबंधन व संचालन भारत करता है। जैसे भीमनगर में कोशी पर बने बैराज का प्रबंधन व संचालन भी भारत के जिम्मे है। वाल्मीकिनगर की ओर से गंडक के तट पर से उस ओर नेपाल के हिस्से में एक पहाड़ दिखता है, जिसका नाम मेदार पहाड़ है। लोगों ने बताया कि शिवरात्रि के मौके पर वहां मेला लगता है। गंडक नदी पर अगर धूप चमकीली हो तो सूर्यास्त का दृश्य आकर्षक होता है।

गंडक पर सूर्यास्त का दृश्य, उस ओर नेपाल है।

गंडक नदी को नारायणी के नाम से भी जानते हैं। नेपाल में इसे ज्यादा कर नारायणी नाम से ही पुकारते हैं। इस नदी में शालिग्राम पत्थर मिलता है जो एक विशिष्ट पत्थर होता है और हिंदू धर्मावलंबियों में उसका धार्मिक महत्व होता है। हमने भी एक सुबह संगम पर शालीग्राम के पत्थर ढूंढने की कोशिश की। कुछ पत्थर मिले जो शालिग्राम से मिलते-जुलते थे, लेकिन किसी स्थानीय व्यक्ति ने कहा कि यह शालिग्राम नहीं है। किसी अन्य व्यक्ति ने बताया कि शालिग्राम का पत्थर नेपाल के हिस्से में पड़ने वाले गंडक खासकर काली गंडकी में पाया जाता है। किसी ने यह भी बताया कि गंडक से शालिग्राम चुन कर इसे बेचने वाले बनारस ले जाते हैं।बहरहाल, हम वहां से कुछ पत्थर चुन कर ले आए। गंडक नदी के कई नाम हैं – काली गंडकी, नारायणी, सत्पगंडकी। इसे सदानीरा भी कहा गया है। सदानीरा शब्द का तात्पर्य यह है कि जिसमें हमेशा पानी रहता हो।

गंडक नदी में तमसा व सोना नदी के संगम स्थल पर हमारे द्वारा चुने गए पत्थर।

जंगल हमें मुफ्त में बहुत कुछ देता है, हम उसे क्षति पहुंचाते हैं


जंगल हमारी धरती के फेफड़े की तरह हैं। यह हमें हवा, पानी, वनोत्पाद, जलवायु हर तरीके से संपन्न करते हैं। भले ही हम उसके प्रति उतनी संवेदनशीलता न दिखाएं। वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के अंदर कई जगहों पर प्लास्टिक प्रतिबंधित है और उस पर जुर्माने का प्रावधान है। ऐसी व्यवस्था इसलिए है ताकि पशुओं व जंगल के स्वास्थ्य के लिए घातक प्लास्टिक के रैपर, बोतल व अन्य चीजों को वहां हम छोड़ कर न आ जाएं। इसलिए जंगल के प्रति और उसके जीवों के प्रति अधिक संवेदनशील होने की जरूरत है।

बुजुर्ग राजनारायण जी को गंडक सिंचाई परियोजना से सेवानिवृत्त हैं और वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के पास रहते हैं, वे हमें एक सुबह जंगल से भुटकी चुनते मिले।

मेरे मन में एक सवाल, एक आकर्षण वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से मिलने वाले वन उपज को लेकर था। एक दिन घूमते हुए मैंने कुछ लोगों को पेड़ों के नीचे से मशरूम प्रजाति की कोई चीज ढूंढते देखा और अपने ऑटो वाले से उसके बारे में थोड़ी जानकारी ली। उन्होंने ने कहा कि शुरुआती बारिश के दौरान यह साल के पेड़ के नीचे जमीन में होता है। इसे स्थानीय लोग भुटकी बोलते हैं और यह 300 से 400 रुपये किलो तक बिकता है। सुभाष नामक एक स्थानीय युवक ने बताया कि मई, जून व जुलाई के महीने में यह जंगल में मिलता है। जहां पत्ता सड़ जाता है तो उसके नीचे यह ज्यादा उपजता है। इसे चुन रहे 76 वर्षीय एक बुजुर्ग राज नारायण बताया कि मुश्किल से यह मिलता है और ढूंढने में मेहनत लगती है। इसे चुनते महिलाएं, पुरुष, बच्चे-बुजुर्ग सभी दिखते हैं। खासकर बारिश के ठीक बाद और सुबह के समय में।

बहरहाल, हमें वाल्मीकि टाइगर रिजर्व में बाघ तो नहीं दिखा, लेकिन खूबसूरत जंगल, मोहक पेड़, आकर्षक नदियां, चिड़ियों की चहचहाहट, मोर, कई पक्षी दिखे और यह समझ में आया कि प्रकृति के अंदर संतुलन की ताकत है और हमारे जंगल का एक मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र होता है।

ठहरिये! तो क्या आप भी वाल्मीकि नगर बाघ अभ्यारण्य जाने की सोच रहे हैं? अभी प्लान मत कीजिए मानसून के महीनों में 15 जून से 15 अक्टूबर तक यह पर्यटकों व आमलोगों के लिए बंद रहता है। इसलिए उसके बाद की ही यात्रा प्लान कीजिए।

(सभी तसवीरें: राहुल सिंह/क्लाइमेट ईस्ट।)

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