उत्तर चौबीस परगना के धमाखाली से राहुल सिंह की रिपोर्ट
सुंदरबन में नदियों में बढता खारापन सभी तरह के मछुआरों को प्रभावित करता है, लेकिन मछुआरा महिलाएं इससे खासतौर पर प्रभावित होती हैं। इसकी वजह है कि वे खासतौर पर नदी में डूब कर घंटों छोटी मछलियां पकड़ती हैं जिसे बीज के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और दूसरे मछुआरे उसे खरीदते हैं। एक महिला मछुआरा न्यूनतम पांच से छह घंटा पानी में डूबी रहती हैं, जिससे उनकी त्वचा व स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्परिणाम पड़ता है।
55 वर्षीया महिला मछुआरा मोमीना बीवी के शब्द और भाव दोनों सख्त थे पर बातचीत का तरीका आत्मीयता से भरा। उनसे बातचीत के दौरान यह समझ में आता है कि उनके शब्दों व भाव की सख्ती उनके कष्टदायक व कड़ी मेहनत वाले पेशे को लेकर है। अगर वे हर दिन अहले सुबह से दिन चढने तक के घंटों की मेहनत कर 1000 छोटी मछलियां जिसे पिन कहते हैं, पकड़ेंगी तो उसकी कीमत उन्हें दूसरे मछुआरों से 250 रुपये मिलेगी, यानी प्रति मछली 25 पैसे। हालांकि इस आय के लिए उन्हें अपने स्वास्थ्य व जिंदगी को दावं पर लगाना होता है।

मोमीना बीबी पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के संदेशखाली ब्लॉक – 2 के धमाखाली गांव की रहने वाली हैं। गर्मी के दिनों की एक सुबह कालिंदी नदी में मछली पकड़ने वाली मोमीना बीबी ने इस संवाददाता से बातचीत में कहा – “हम सकाल (सुबह) यहां (नदी) में आ जाते हैं और 10 बजे तक अपने घर चले जाते हैं। माछ और केकड़ा ही हमारी जीवन-जीविका आजीविका का एक मात्र सहारा है और हमारे पास रोजगार का कोई दूसरा साधन नहीं है”। वे अपनी इस कड़ी मेहनत से होने वाली आय के बारे में कहती हैं – “150 से 200 टका तक हमारी कमाई हो जाती है”। वे कहते हैं कि इसके ऐवज में हमें घंटों नदी के खारे पानी में डूबा रहना होता है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।
बातचीत के दौरान वे नदी में घुटने तक डूब कर अपने जाल को लेकर एक छोर से दूसरे छोर लगातार आती-जाती रहती हैं। उनका यह अंदाज वक्त की उनके लिए अहमियत को इंगित करता है।
नदी में मछली पकड़ रही एक दूसरी महिला 34 वर्षीया करिया बीबी कहती हैं, “नदी के पानी में नून (नमक) है, इससे हमारे शरीर को नुकसान होता है, लेकिन हम महिलाएं घंटों इसमें भींग कर काम करती हैं और यह हमारी मजबूरी है”। वे कहती हैं कि नून पानी से शरीर में काला दाग व घाव हो जाता है। हमारे इस सवाल पर कि वे कब से नदी में नून पानी है, वे कहती हैं – “हमें जब से ज्ञान-बुद्धि हुआ ( जब से होश संभाला) तब से नदी में नून है। हालांकि वे इस बात पर जोर देती हैं कि 2009 में आए आइला चक्रवात के बाद सुंदरबन क्षेत्र की इस नदी के पानी में खारेपन की मात्रा बढ गई। करिया बीबी के दो लड़के हैं जो सातवीं व पांचवीं कक्षा में पढते हैं और उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया है। ऐसे में यह काम ही उनकी आजीविका का एकमात्र सहारा है। उनके पास खेत -बाड़ी भी नहीं है।

महिला मछुआरा करिया बीबी कालिंदी नदी में घंटों गुजार कर इस तरह मछली पकड़ती है और खुद व अपने दो बच्चों का भरण-पोषण करती हैं।
वे कहती हैं कि नदी के नून जल से हमारे स्वास्थ्य को तो नुकसान होता ही है, हर साल नदी का पानी बढने से नदी के किनारे स्थित घर भी पानी में भींग जाते हैं, जिससे क्षति होती है। चक्रवात आने पर दिक्कत अधिक होती है। उनका कहना है कि आइला सेंटर यानी चक्रवात से बचाव के लिए बनाए गए सरकारी भवन भी यहां करीब नहीं हैं, वे यहां से दूर हैं, जबकि जरूरत इस बात की है कि सरकार यहां भी उसका निर्माण करवाये।

नदी के किनारे रहने वाली समीरन बीबी कहती हैं कि यहां के लोगों की जिंदगी काफी कठिन है, बारिश के दिन अधिक कष्टदायक होते हैं, पानी तेज होने पर हमारे घरों को क्षति होती है। हमारे पास यह नदी ही आजीविका का जरिया है, इसलिए हम यहां रहते हैं। नदी का पानी बढने पर तटीय क्षेत्र में मछली चास करने वाले लोगों को नुकसान होता है।

द हिंदू अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार, कमर तक पानी में डूब कर मछलियां पकड़ने से सुंदरबन क्षेत्र की मछुआरा महिलाओं में मासिक धर्म, मूत्र मार्ग व अन्य प्रकार के संक्रमणों का सामना करना होता है। सुंदरबन के भीतरी इलाकों में इस तरह मछलियां पकड़ने वाली महिलाओं के लिए खतरे और अधिक होते हैं। उन पर मगरमच्छ, सांप के साथ बाघ के हमले का भी खतरा रहता है।

खारापन बढने से मछली की कई प्रजातियों का बढा संकट
मछुआरा युवक रवीन सरदार (31 वर्ष) कहते हैं कि नदी में खारेपन की समस्या बढने से मीठे पानी की कई मछलियां इस क्षेत्र में लुप्त हो गई हैं। वे कहते हैं रूई, मृगल, कतला ऐसी मछलियां है जो मीठे पानी में होती हैं, पहले वे यहां होती थीं, लेकिन अब नहीं होती हैं। यह पूछने पर कितना साल पहले तक वे मछलियां होती थीं, रवीन ने कहा कि जब हमारा जन्म नहीं हुआ था उसे पहले ये मछलियां होती थीं, अब नहीं होती हैं। रवीन कहते हैं कि नदी का पानी खारा है और सिर्फ बारिश के दिनों में इस नदी का खारापन कम होता है। वे इसकी वजह पूछने पर कहते हैं बारिश का पानी ज्यादा होता है तो वह नदी में भर जाता है और कोलकाता की ओर से भी उस समय पानी छोड़ा जाता है। रवीन पहले प्रवासी श्रमिक के रूप में दूसरे राज्यों में काम कर चुके हैं, इसलिए वे अच्छी हिंदी भी बोलने में सक्षम हैं। हालांकि अब वे अपने गांव में परिवार के साथ मछलियां का काम करते हैं।

कालिंदी नदी का एक दृश्य। कालिंदी नदी के इस पार यानी पश्चिम की ओर धमाखाली है और उस पार पूर्व दिशा में संदेशखाली द्वीप है।
धमाखाली के निकट के प्रमुख शहर दक्षिण 24 परगना जिले में पड़ने वाले केनिंग के सरकारी अनुमंडल अस्पताल के डॉक्टर डॉ तन्मय राय ने क्लाइमेट ईस्ट से बातचीत में कहा, “सुंदरबन क्षेत्र में खारापन बढने से त्वचा संबंधी विकार के मामले बढे हैं”। वे अपने जमीनी अनुभव के आधार पर कहते हैं, छेटा मोल्ला खाली व गोसाबा की ओर उन्होंने त्वचा संबंधी मामले अधिक देखे। वे कहते हैं कि क्षेत्र की गरीबी कम हो जाए और शिक्षा का स्तर बढ जाए तो स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों को कम किया जा सकता है। वे कहते हैं कि बीमारियां गरीबों को अधिक प्रभावित करती हैं और इस क्षेत्र में दूषित पानी से होने वाली बीमारियां भी बढ रही हैं।
मिट्टी के बजाय कंक्रीट के तटबंध चाहते हैं लोग
38 वर्षीय मछुआरा हबीबुल्लाह गाजी कहते हैं, “नदी का पानी धमाखाली को पश्चिम दिशा में काटता है। तूफान आने पर चारों ओर पानी भर जाता है”। मोमिन गोलदार नामक एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा कि नदी के किनारे रहने वाले लोगों को काफी दिक्कत है। नदी में ज्वार आने पर उसके किनारे बने तटबंध से पानी ऊपर तक चला जाता है और लोगों के घर पानी में डूब व टूट जाते हैं। वे कहते हैं कि नदी में प्लावन आने से नदी के उस पर सतह पर भेरी मत्स्यपालन करने वालों का नुकसान होता है, उनकी भेरी क्षतिग्रस्त हो जाती है। वे कहते हैं कि यह जगह समुद्र से दूर नहीं है और जल प्लावन होने पर समुद्र का पानी यहां घुस जाता है, मछुआरों के यहां छोटे-छोटे फिशरिज हैं, कोई रोजगार-कारखाना यहां है नहीं, लोग या तो रोजगार के लिए यहां पलायन करते हैं या फिर यहां मछली का काम करते हैं।
वे कहते हैं कि महिलाएं यहां छोटी मछलियां पकड़ती हैं जिसे वे 25 पैसे पीस के हिसाब से बेचती हैं। यह उनकी आय का एकमात्र जरिया है। वे व कुछ अन्य स्थानीय लोग इस बात पर जोर देते हैं कि नदी के किनारे बनाए गए तटबंध का कंक्रीटीकरण किया जाए ताकि नदी की रफ्तार तेज होने या तूफान व चक्रवात में उसमें कटाव न हो और लोगों की सुरक्षा अधिक मुकम्मल हो सके।