राहुल सिंह की रिपोर्ट
चैनपुर (गिरिडीह) : रेशम के कपड़े कपड़ों की एक उन्नत किस्म मानी जाती है, जिसकी न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में काफी अधिक मांग होती है। हालांकि प्रतिस्पर्धी कीमतों की वजह से बाजार में कृत्रिम रेशम भी उपलब्ध है, लेकिन असली रेशम की मांग हमेशा की तरह बनी हुई है। रेशम के ये कपड़े रेशम के कीटों से तैयार होते हैं, जिसकी लंबी प्रक्रिया है। आप हमारी इस फोटो स्टोरी में इस प्रक्रिया को समझ सकेंगे कि रेशम तैयार होने की जैविक प्रक्रिया क्या है। इस जैविक प्रक्रिया के बाद ही अगले चरण में बुनकर कोकून या गोटी से रेशम के धागे तैयार करते हैं। हम दूसरे चरण की प्रक्रिया का जिक्र इस स्टोरी में नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वह बनुकरों का काम है और एक अलग विषय है।

रेशम के कीड़ों का जीवन उनके अंडों से शुरू होता है और उसके बाद वह कैटरपिलर यानी इल्ली या लार्वा के रूप में परिपक्व होता है। रेशम कीटों के जानकार निरंजन कुमार कहते हैं, “अंडे से कोकून तैयार होने तक की प्रक्रिया पांच चरणों की होती है और इसमें 30 से 35 दिन का वक्त लगता है। यही कैटरपिलर बाद में तितली बन जाते हैं, जो अंडे देते हैं और अगले चरण की जीवन प्रक्रिया शुरू होती है”।

रेशम के कीड़े या कैटरपिलर कुछ प्रमुख पेड़ों पर पनपते हैं। झारखंड में यह अर्जुन, आसन और साल के पेड़ पर पनपते हैं। अलग-अलग पेड़ों पर पनपने वाले कीड़ों की खूबियां भी अलग-अलग होती हैं। जैसे – अर्जुन के पेड़ पर वे ज्यादा तेजी से पनपते हैं, जबकि साल के पेड़ पर पनपने वाले कीड़ों की गोटी अधिक मजबूत होती है।

पेड़ पर चढाया गया लार्वा पत्ता खाता है और वह कोकून का निर्माण करता है। बाद में वह कोकून के अंदर बंद हो जाता है ताकि चिड़िया या किसी अन्य जीव की नजर उस पर न जाए और वह बच सके। कोनून एक सुरक्षात्मक आवरण है। कोकून कीटों को शिकारियों से और प्रतिकूल मौसम से होने वाली मौत से बचाता है। यह रेशम के रेशों का आवरण है। बाद में इसी कोकून से कैटरपिलर सुंदर तितलियों के रूप में निकलते हैं। इन कोकून को एक ऐसे कमरे में लड़ीनुमा रखा जाता है, जहां उनके अनुकूल वातावरण हो। उसी कोकून से तितली निकलती है। इनमें नर व मादा दोनों तरह की तितलियां होती हैं, जिनका युग्मन कराया जाता है। बाद में मादा तितली अंडा देती है और कुछ दिनों बाद मर जाती है।
जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है गोटी या कोकून तैयार होने में 35 दिन तक लगते हैं। इनकी कीमत बाजार में 5.45 रुपये से 6.00 रुपये प्रति गोटी होती है। इसकी कीमत में मांग, उपलब्धता और महीनों के हिसाब से कमी-बढोतरी हो सकती है।

निरंजन कुमार बताते हैं, “कोकून से तितली निकलने के बाद वह आठ से 10 दिन तक जीवित रहती है और फिर स्वतः उसका जीवन चक्र समाप्त हो जाता है और मर जाती है”। हालांकि इससे पहले वह अंडा देती है, जिससे अगले चरण का जीवन चक्र शुरू होता है।
एक तितली 200 तक अंडा एक बार में देती है। उसकी पहले उसके पंख काट दिए जाते हैं, पंख काटने के बाद वे तीन दिनों तक अंडा देती है और करीब छह दिनों बाद अंडा से कीड़ा निकलता है। कोकून से तितली निकलने के बाद वह आठ से नौ दिन तक जिंदा रहती है।

आप यहां तसवीरों में जो पीली व हल्के भूरे (अंग्रेजी में ऐश कलर या राख जैसा रंग) रंग की तितली देख रहे हैं, वह मादा तितली है, जबकि लाल या बादामी रंग में नजर आने वाले नर या पुरुष तितली हैं। निरंजन कुमार बताते हैं कि नर व मादा दोनों तितलियों की मूंछ होती है, लेकिन नर तितली की मूंछ मोटी और चौड़ी होती है, जबकि मादा तितली की मूंछ पतली और लंबी होती है।
निरंजन कुमार बताते हैं कि अंडा, पीपा या तितली में पैबरीन नामक एक बीमारी होती है, जिसकी हम जांच करते हैं। अगर किसी में यह बीमारी पायी जाती है तो उसे हम समूह से हटा देते हैं। वे कहते हैं, यह संक्रामक बीमारी होती है और एक संक्रमित साथी समूह के दूसरे साथियों को भी संक्रमित कर सकता है। इससे खराब क्वाइलिटी का कोकून तैयार होगा। वे कहते हैं जिस कोकून में छेद होगा, उससे खराब धागा निकलेगा, उसका रेशा टूट जाएगा, लेकिन जिसमें छेद नहीं होगा, उससे लंबा और अच्छी क्वाइलिटी का धागा निकलेगा।

तसर केंद्र स्थित पेड़ जिन पर कीड़ों को चढाया जाता है और वे पत्ता खाकर कोकून तैयार करते हैं। इस प्रक्रिया में करीब 35 दिन का समय लगता है।
हमने यह फोटो स्टोरी गिरिडीह जिले में स्थित प्रसिद्ध पर्वत पारसनाथ पहाड़ के निकट स्थित चैनपुर गांव के एक तसर केंद्र से कवर की है। निरंजन कुमार इस केंद्र पर प्रोजेक्ट असिस्टेंट के रूप में कार्यरत हैं। वहीं, रेखा कुमारी असिस्टेंट के रूप में कार्यरत हैं। रेखा ने पश्चिमी सिंहभूम से तसर उत्पादन का प्रशिक्षण लिया है। रेखा कुमारी कहती हैं, “हम अंडों की जांच करते हैं, ताकि उसकी गुणवत्ता को परख सकें”।

यह एक बहुत ही पुराना तसर केंद्र है, जिसकी स्थापना वर्ष 1962 में हुई थी। इस तसर केंद्र से 80 किसान समूह जुड़े हुए हैं, जो रेशम कीटों को तैयार करते हैं। एक समूह में 25 किसान होते हैं, यानी इस केंद्र से लगभग 2000 किसान संबद्ध हैं जो तसर उत्पादन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं और आजीविका कमा रहे हैं।

ऐसे उद्यमों को बढावा देने से लोगों को अपने गांव में रोजगार तो मिलता है और पलायन कम होता है। साथ ही पेड़-पौधों के प्रति लोगों की जागरूकता भी बढती है। लोग खुद रेशम कीटों के लिए अनुकूल पौधों का रोपण करते हैं, इससे वे हरियाली बढाने में योगदान देते हैं।

गिरिडीह जिले के चैनपुर गांव में स्थित तसर उत्पादन केंद्र।
इस तसर केंद्र के कर्मियों ने क्लाइमेट ईस्ट को बताया कि यहां से मांझीडीह, टेसाखुली, चैनपुर, मंझलाडीह, खुदीसार, नागावार ससारको, नारायणपुर आदि गांव के किसान जुड़े हुए हैं।