पंडित रघुनाथ मुर्मू: संतालों की भाषाई अस्मिता के सूत्रधार

संताली समाज के प्रति समर्पित थे पंडित रघुनाथ मुर्मू उन्होंने संताली भाषा के लिए ओलचिकी लिपि का आविष्कार कर संतालों में भाषाई, लिपि व सांस्कृतिक अस्मिता का भाव भरा।


कालीदास मुर्मू


पंडित रघुनाथ मुर्मू एक प्रसिद्ध साहित्यकार और संताली भाषा के विद्वान एवं लिपि आविष्कारक थे। उन्होंने संताली भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पंडित जी का जन्म 1905 ई० को वुद्ध पूर्णिमा के दिन तत्कालीन ब्रिटिश भारत के ओड़िशा प्रांत के मयूरभंज जिले के दंडबोस (डाहारडीह) नामक गांव में हुआ। वह नंदलाल मुर्मू और सलमा मुर्मू के पुत्र थे। उनके पिता नंदलाल मुर्मू गांव के मांझी बाबा थे। उनके मामा तत्कालीन मयूरभंज राज्य के राजा प्रताप चंद भंजदेव के दरबार में मुंशी थे। जन्म के समय उनका नाम चुनू मुर्मू रखा गया था। बाद में संताली रीति-रिवाज के अनुसार उनका नाम बदलकर रघुनाथ मुर्मू कर दिया गया।

चूंकि मामा घर संपन्नता से परिपूर्ण थे, इस वजह से इनका बचपन खुशियां से भरा रहा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में उड़िया माध्यम से शुरू हुई थी। प्राथमिक विद्यालय में उत्तीर्ण होने के बाद वे उच्च प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आपने सहपाठी सावना मुर्मू के साथ बहलदा चलें गए।

उन्होंने वहां विद्यालय के निकट गांव वानाडुंगरी में तत्कालीन पुलिस उप-निरीक्षक अंनत मांझी के घर में रहकर पढ़ाई पूरी की। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्होंने वरिपादा उच्च विद्यालय में दाखिला लिया। 1924 ई० में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा में सफलता हासिल की। इसी बर्ष उन्होंने जामजोड़ा ( वर्तमान में सरायकेला-खरसावां जिला, झारखंड) गांव की रहने वाली नेहा वास्की से संताली रीति-रिवाज से शादी कर ली एवं तकनीकी की पढ़ाई करने लगे। कुछ समय तक वे तकनीकी पेशे से जुड़े रहे। फिर वे बोड़ोतोलिया उच्च विद्यालय में अध्यापक बन गए। इस दौरान उनकी रुचि संताली साहित्य में जगी। पर इनके सामने लिपि बाधक बन कर खड़ी हो गई। उन्होंने महसूस किया कि संताल के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और पंरपरा के साथ भाषा को बनाए रखने के लिए एक अलग लिपि की जरूरत है। अपने सहपाठी सावना मूर्मू के साथ मिलकर वे लिपि की खोज में जुट गए। अंततः उन्हें इस मिशन पर सफलता मिल गई। आधिकारिक रूप से उन्होंने 1925 ईस्वी में संताली भाषा के लिए एक लिखित लिपि की उद्घोषणा की, जिसे ओल चिकि कहा गया। पंडित रघुनाथ मुर्मू जी का मानना था कि किसी भी भाषा के विकास के लिए उसकी लिपि का होना जरूरी है।

इस संदर्भ में वे संताली में लिखते हैं –

ओल मेना: तामा
रोड मेना: तामा
धोरोम मेना: तामा
आमहों मेना: मा ।

ओल एम आद लेरे
रोड एम आद लेरे
धोरोम एम आद लेरे
आमहों आदो।

आमा: ओड़ा: लागिद
आमा: दुवार लागिद
जांहाय दो वाय ञेञेला
आम: गे ञेल में।

आमा: जाति लागिद
आमा: धोरोम लागिद
जांहाय दो वाय ञेञेला
आम: गे ञेल में।

हमारी अपने लिपि है, बोली है, धर्म है, और हम भी हैं, अगर आप अपनी भाषा-संस्कृति, लिपि और धर्म भूल जायेंगे तो आपका अस्तित्व भी खत्म हो जाएगा। उन्होंने संताली के लिए ओल चिकि का प्रयोग करते हुए दर्जनों पुस्तकें लिखीं। पंडित रघुनाथ मुर्मू एक भाषाविद् के साथ उपन्यासकार, नाटककार एवं साहित्यकार भी थे। संताली समाज को आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से उन्नतशील बनाने के लिए अपने व्यापक कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में उन्होंने आसेका का गठन किया। उनके द्वारा लिखित प्रसिद्ध पुस्तकें- ओल चमेद, दाड़े गे धोन, बिदू चांदान ( 1942), खेरवाड बीर, ( 1952), बांखेड ( 1967), रोनोड़( 1976), सारना (1980) है। इन प्रशंसनीय कार्य के लिए उनको पश्चिम बंगाल और ओडिशा सरकार के आलवा साहित्य अकादमी सहित कई अन्य संगठनों नें सम्मानित किया है। रांची विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी.लिट से सम्मानित किया गया। झारखंड सरकार ने इनके सम्मान में पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला में पंडित रघुनाथ मुर्मू संताली विश्वविद्यालय खोलने निर्णय लिया है। इस दिशा में कार्य प्रगति पर है। इस बर्ष से झारखंड सरकार ने बुद्ध पूर्णिमा के साथ पंडित रघुनाथ मुर्मू के जन्म दिवस के अवसर पर एनआई एक्ट के तहत अवकाश घोषित किया है। इस महान लेखक, साहित्यकार, विचारक एवं समाज सुधारक ने एक फरवरी 1982 को अपने जीवन की अंतिम सांस ली।

इस महापुरुष को जयंती पर उन्हें नमन।

(कालीदास मुर्मू झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशीला में शिक्षक हैं और संताली साहित्य, भाषा, लिपि व संस्कृति के जानकार हैं।)

यह भी पढें –

पंडित रघुनाथ मुर्मू के बारे में जानिए, जिनकी आज जयंती है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *