दक्षिण फाउंडेशन के एक दीर्घाकालिक अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि ओडिशा के रुशिकुल्या में स्थित समुद्री कछुओं के घोंसले के तापमान में वृद्धि के कारण उनमें मादा कछुओं का लिंगानुपात बढ रहा है।
निधि जम्वाल की रिपोर्ट
प्रकृति रहस्यों से भरी हुई है और अरिबाडा उनमें से एक है। अरिबाडा एक स्पेनिश शब्द है जिसका अर्थ है आगमन। यह वह समय होता है जब सैकड़ों हज़ारों ओलिव रिडले कछुए (Olive Ridley Turtle) एक साथ घोंसला बनाने के लिए तट पर आते हैं। समुद्री कछुए रेतीले समुद्र तटों की लंबी पट्टी पर अपने अंडे देने के लिए हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करते हैं।
भारत का मुख्य तटीय भूमि और साथ ही इसके दो द्वीप समूह अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप द्वीप समूह समुद्री कछुओं की चार प्रजातियों के लिए घोंसले के मैदान के रूप में काम करते हैं, जिनमें ओलिव रिडले (Lepidochelys olivacea), ग्रीन (Chelonia mydas), लेदरबैक (Dermochelys coriacea) और हॉक्सबिल (Eretmochelys imbricata) कछुए शामिल हैं।
ये ओलिव रिडले कछुए (जैतून के हरे रंग के खोल वाले) भारत में सबसे प्रचुर मात्रा में पायी जाने वाली प्रजाति है जो ओडिशा के गहिरमाथा व रुशिकुल्या में मध्य अमेरिका की तरह अपने सामूहिक घोंसलों की कॉलोनियां बनाते हैं। यह माना जाता है कि इनकी ये कॉलोनियां समकालीन वैश्विक आबादी का मुख्य स्रोत है। पर, सबसे छोटे समुद्री कछुओं के इस स्वर्ग में दिक्कतें हैं, जिन्हें आइयूसीएन रेड लिस्ट में कमजोर या आघातीय (vulnerable) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
भारत में समुद्री कछुओं की निगरानी संबंधी एक हालिया रिपोर्ट मानिटरिंग सी टर्टल इन इंडिया 2008-24 में कहा गया है, “पिछले 15 सालों से हम रुशिकुल्या के कछुए के घोंसले के तापमान और हैचलिंग (अंडों से बच्चे निकलने की प्रक्रिया) लिंग अनुपात की निगरानी कर रहे हैं, रुशिकुल्या में हैचलिंग लिंग अनुपात औसतन लगभग 71% मादा पाया गया”। यह रिपोर्ट बेंगलुरु स्थित दक्षिण फाउंडेशन द्वारा तैयार की गई है, जो एक गैर लाभकारी संस्था है और संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधनों पर काम करती है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, लिंग अनुपात मादा की ओर झुका हुआ है, पर यह कुछ वैश्विक समुद्री कछुओं की आबादी में देखी गई सीमा तक नहीं है। उच्च तापमान के कारण जब कुछ वर्षाें में लिंगानुपात मादा पक्षपाती रहा तो वहीं कुछ वर्षाें में लिंगानुपात पुरुष पक्षपाती रहा।
बढ़ते तापमान से लिंग अनुपात पर पड़ रहा है प्रभाव
समुद्री कछुए तापमान पर निर्भर लिंग निर्धारण प्रदर्शित करते हैं। अधिकांश प्रजातियों में निषेचन के दौरान लिंग का निर्धारण होता है। हालांकि, अधिकांश कछुओं, घड़ियाल और मगरमच्छों का लिंग निषेचन के बाद निर्धारित होता है। विकसित हो रहे अंडों का तापमान ही तय करता है कि संतान नर होगी या मादा। इसे तापमान पर निर्भर लिंग निर्धारण कहा जाता है।
शोध से पता चलता है कि अगर कछुए के अंडे 27.7 डिग्री सेल्सियस (81.86 डिग्री फारेनहाइट) से कम तापमान पर सेते हैं तो कछुए के बच्चे नर होंगे। हालाँकि, अगर अंडे 31 डिग्री सेल्सियस (88.8 डिग्री फ़ारेनहाइट) से ऊपर पर सेते हैं तो बच्चे मादा होंगे। इसे अमेरिकी वाणिज्य विभाग के तहत एक विज्ञान एजेंसी नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) ने नोट किया है।
एनओएए के अनुसार, शोधकर्ताओं ने यह भी नोट किया है कि रेत जितनी गर्म होगी, मादा कछुओं का अनुपात उतना ही अधिक होगा। जलवायु परिवर्तन और बढ़े हुए तापमान के कारण विषम और यहां तक कि घातक ऊष्मीय स्थितियां पैदा हो सकती हैं, जिसका असर कछुओं की प्रजातियों और अन्य सरीसृपों पर पड़ सकता है।
विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने भी इसी तरह की चिंता जताई है, जिसमें चेतावनी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन के कारण असामान्य रूप से गर्म तापमान सामान्य लिंग अनुपात को बाधित कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप नर शिशु कछुओं की संख्या कम हो सकती है। समुद्र की सतह के गर्म तापमान के कारण समुद्री कछुओं के लिए महत्वपूर्ण चारागाह भी खत्म हो सकते हैं, जबकि लगातार बढ़ते तूफान और समुद्र का स्तर बढ़ने से महत्वपूर्ण घोंसले के शिकार समुद्र तट नष्ट हो सकते हैं और घोंसले को नुकसान पहुंच सकता है।
भारत में दक्षिण फाउंडेशन के दीर्घकालिक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री कछुओं की आबादी में तेजी से मादा प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है, जिससे आबादी की दीर्घकालिक व्यवहार्यता पर सवाल उठ सकते हैं।
रुशिकुल्या भारत में एक सबसे बड़ा सामूहिक तौर पर कछुओं के घोंसले की कॉलोनी है जो इस प्रजाति में नए सदस्यों के आगमन में महत्वपूर्ण योगदान देता है। इसलिए इस घोंसले में पैदा हुए हैचलिंग (कछुओं के परिवार में नए आने वाले सदस्य) के लिंग अनुपात का अनुमान लगाना गरम होते जलवायु के भविष्य के प्रभावों को समझने के लिए उपयोगी है।

Olive Ridley turtles . Photo Credit – Dakshin Foundation.
ओडिशा में ऑलिव रिडले कछुओं की निगरानी
दक्षिण फाउंडेशन ने 2008 में पारिस्थितिकी विज्ञान केंद्र (Centre for Ecological Sciences), भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु और ओडिशा सरकार के वन विभाग के सहयोग से रुशिकुल्या में कछुओं का दीर्घकालिक निगरानी कार्यक्रम शुरू किया। यह वर्तमान में भारत में ओलिव रिडले कछुओं पर सबसे लंबे समय तक चलने वाला अध्ययन है।
कार्यक्रम का उद्देश्य इंडेक्स साइट रुशिकुल्या में ऑलिव रिडले की निकटवर्ती और घोंसले वाली आबादी की निगरानी करना है, जहां हैचलिंग के लिंग अनुपात पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का भी आकलन किया गया है। ये निष्कर्ष 2008 और 2024 के बीच संकलित आंकड़ों पर आधारित हैं।
समुद्री कछुए लंबे समय तक जीवित रहने वाले, देर से वयस्क होने वाले और अत्यधिक प्रवास करने वाली प्रजाति है। इनकी आबादी में परिवर्तन वर्षों या दशकों में होता है, जिससे आबादी के रुझान और पर्यावरणीय प्रभावों को समझने के लिए दीर्घकालिक निगरानी आवश्यक हो जाती है।
ओलिव रिडले कछुए समुद्री जल तट से दूर खुले व मुक्त जल में भोजन करते हैं, लेकिन प्रजनन के मौसम के दौरान निकटवर्ती जल में चले जाते हैं। नर और मादा ओलिव रिडले कछुए नवंबर के आसपास रुशिकुल्या में चले जाते हैं, जहां नर मादाओं से पहले पहुंचते हैं। इनका संसर्ग निकटवर्ती जल में होता है जिसके बाद नर अपने चारागाह में लौट आते हैं। मादा तब तक निकटवर्ती जल में रहती हैं जब तक वे घोंसला बनाना पूरा नहीं कर लेतीं।
गर्भवती मादा अपने अंडे देने के लिए उसी समुद्र तट पर लौटती हैं जहाँ वे पैदा हुई थीं। इसका मतलब है कि रुशिकुल्या में पैदा हुई मादा कहीं और घोंसला नहीं बनाएगी।
अंडे दिए जाने के दो महीने बाद बच्चे निकलते हैं। प्रत्येक का आकार लगभग एक माचिस की डिब्बी जितना होता है और वे समुद्र की ओर बढ़ते हैं, जहां वे अपना शेष जीवन तैराकी, भोजन और लंबी दूरी की यात्रा करते हुए बिताते हैं। जब कछुए यौन परिपक्वता प्राप्त करते हैं(तेरह साल बाद), तो वे अपने जन्म स्थान की यात्रा करते हैं, वे अक्सर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करते हैं।
ओलिव रिडले कछुओं का अरिबाडा या सामूहिक घोंसला बनाना आमतौर पर गहिरमाथा और रुशिकुल्या दोनों जगहों पर प्रत्येक घोंसले के मौसम में एक या अपवाद में कभी दो बार होता है। रुशिकुल्या में सामूहिक घोंसला बनाना रुशिकुल्या नदी के मुहाने के उत्तर में फैले चार किलोमीटर के समुद्र तट पर होता है। ओडिशा में ये सामूहिक घोंसला बनाने की घटना दो से 10 दिनों के बीच कहीं भी चलती हैं।
समुद्री कछुओं की बढती आबादी
दक्षिण फाउंडेशन द्वारा रुशिकुल्या में कछुओं की निगरानी से पता चला है कि कछुओं की आबादी बढ रही है। 2000 के दशक की शुरुआत में प्रति सीजन जहां 25 हजार से 50 हजार घोंसलों बनाए जाते थे, वहीं पिछले दशक में इसकी संख्या डेढ लाख से अधिक घोंसलों तक की हो गई। कुछ वर्षों में इसकी संख्या चार लाख तक होने का अनुमान लगाया गया है।
साल 2008 से रुशिकुल्या में लगभग हर साल सामूहिक घोंसलों बनाने की घटनाएं दर्ज हुई हैं, जिसमें कई वर्षों में एक से दो लाख कछुए दर्ज किए गए हैं। इससे पता चलता है कि इस क्षेत्र में रिडले कछुए की आबादी या तो स्थिर है या बढ़ रही है। ऐसा निगरानी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है।
2008 से सामूहिक घोंसलों की आबादी की निगरानी के लिए एक मानकीकृत जनगणना प्रोटोकॉल का उपयोग किया गया है। एरिबाडा में घोंसलों की संख्या का अनुमान स्ट्रिप ट्रांसेक्ट विधि का उपयोग करके लगाया जाता है। दक्षिण फाउंडेशन का कहना है कि पिछले दशक में अरिबाडा में घोंसले बनाने वाले कछुओं की संख्या के अनुमान से इस घोंसले में वृद्धि की प्रवृत्ति का संकेत मिलता है।
बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के पारिस्थितिकी विज्ञान केंद्र के प्रोफेसर कार्तिक शंकर ने कहा, “ओडिशा वन विभाग के सहयोग के बिना यह दीर्घकालिक अध्ययन संभव नहीं होता। लगभग दो दशकों की निगरानी का ट्रेंड यह है कि रिडले की आबादी स्थिर है या बढ़ रही है”।
उन्होंने कहा, “यह तथ्य कि कुछ वर्षों में अरिबाडा की प्रक्रिया नहीं होता है, हैरान करने वाला है, क्योंकि हमारी अपतटीय निगरानी से संकेत मिलता है कि पानी में बड़ी संख्या में कछुए हैं, लेकिन यह तत्काल चिंता का कारण नहीं हो सकता है। फिर भी हमें तटीय और समुद्री दोनों आवासों के लिए खतरों से सावधान रहना चाहिए”।

भविष्य की दिशा
भारत की तटीय पट्टी, अपतटीय जल और रीफ पारिस्थितिकी तंत्र इस क्षेत्र में समुद्री कछुओं के लिए महत्वपूर्ण आवास हैं। लेकिन, तटीय विकास परियोजनाओं, अपतटीय तेल और गैस अन्वेषण, खनन, नए बंदरगाहों के निर्माण, जहाज़ यातायात और मत्स्य पालन के साथ होने वाले खतरों से समुद्री कछुओं की आबादी और उनके आवास पर असर पड़ना जारी है।
पिछले दो दशकों में, समुद्री कछुओं की आबादी में सुधार के संकेत मिले हैं, जिसका श्रेय संरक्षण उपायों और आबादी के लचीलेपन को जाता है। हालांकि, कछुओं को मछली पकड़ने, तटीय विकास और जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए उनकी निरंतर वृद्धि और दीर्घकालिक अस्तित्व सुनिश्चित करने के लिए भूमि और समुद्र दोनों जगहों पर आबादी की निगरानी करना महत्वपूर्ण है।
ओडिशा में ओलिव रिडले कछुओं की दीर्घकालिक निगरानी आबादी की स्थिति को समझने, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन करने और घोंसले के आवासों में होने वाले परिवर्तनों का निरीक्षण करने के लिए आवश्यक है। चूंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव प्रकट होने में समय लगता है, इसलिए समय के साथ आबादी में होने वाले परिवर्तन का आकलन करने के लिए अध्ययन करना महत्वपूर्ण है।
ओडिशा में ओलिव रिडले के संरक्षण के लिए संरक्षण पहलों में स्थानीय मछली पकड़ने वाले समुदायों के लिए सामाजिक परिणामों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। भारत में विभिन्न समुद्री कछुओं की प्रजातियों के चारागाह और प्रजनन स्थल तटीय समुदायों के वाणिज्यिक मछली पकड़ने के मैदानों से ओवरलैप या आच्छादित हो जाते हैं। नतीजतन, संरक्षण उपायों के परिणाम अनिवार्य रूप से इन समुदायों की आजीविका को प्रभावित करते हैं।
स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ना और उनके हित सुनिश्चित करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जो इन प्रजातियों के साथ रहते हैं और उनके साथ स्थान साझा करते हैं। इसके लिए ऐसे उपाय तैयार करने की आवश्यकता है जो बड़े पैमाने पर स्थानिक प्रतिबंधों या मछली पकड़ने के प्रतिबंधों के बजाय उच्च घनत्व वाले क्षेत्रों की सुरक्षा को प्राथमिकता दें। दक्षिण फाउंडेशन की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि तटीय और मछली पकड़ने वाले समुदायों में टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देना और वैकल्पिक आजीविका के अवसरों की खोज करना महत्वपूर्ण है।
(निधि जम्वाल मुंबई स्थित एक पत्रकार हैं, जो पर्यावरण, जलवायु और ग्रामीण मुद्दों पर रिपोर्ट करती हैं।)