अलीराजपुर (मध्यप्रदेश) : नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक अहम स्तंभ और 40 सालों के नर्मदा घाटी के संघर्ष के प्रतीक लुवारिया भिलाला (उम्र करीब 55 वर्ष) का दो जून 2025 को निधन हो गया। वे मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के अलीराजपुर तहसील के जलसिंधी गांव के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम शंकर भिलाला था। वे नर्मदा घाटी के संघर्ष और सरकारी नीतियों के दोष को मुखरता व स्पष्टवादिता से सामने लाने वाले एक अहम शख्सियत थे।
लुवारिया भाई के निधन पर नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर सहित नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े कई लोगों व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दुःख व्यक्त किया है।
मेधा पाटकर ने लुवारिया भाई के निधन पर लिखा, “लुवारिया चला गया, यह खबर धक्कादायक हीं नहीं नर्मदा घाटी के 40 साल से चल रहे संघर्ष के साथियों के लिए दुःखदायक भी है। एक ऐसा मूलनिवासी जिसका संकल्प रहा, नहीं छोड़ेंगे नर्मदा किनारा”।
मेधा पाटकर ने लिखा है कि नर्मदा नदी के किनारे स्थित जलसिंधी उनके गांव का नाम था जो आंदोलन के तहत सत्याग्रह का केंद्र बना रहा। लुवारिया के परिवार के सभी लोग आंदोलनकारी रहे हैं, लेकिन वह जब मुंह खोलकर स्पष्ट ढंग से जवाब देते तो उसमें उनकी जिद और जल, जंगल व जमीन से उनका रिश्ता व आंदोलन पर उनका भरोसा सामने आता था।
उनके घर पर सैकड़ों आदिवासी व घाटी के लोग पहुंचते थे। उनके परिवार के लोगों को बसावट के लिए गुजरात में जमीन स्वीकारनी पड़ी थी। मेधा पाटकर ने लिखा है कि लुवारिया बिना संपूर्ण पुनर्वास मिले चले गए।
नर्मदा आंदोलन से जुड़े रहे रेहमत ने लिखा, “नर्मदा बचाओ आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता जलसिंधी के लुवारिया भाई ने अलविदा कह दिया। मध्यप्रदेश के पहले प्रभावित गांव के कड़े संघर्ष ने सरदार सरोवर बांध के गैर कानूनी निर्माण को सालों तक रोक रखा, जिससे प्रभावित लोग अपने अधिकारों को पाने में सफल हो पाए”।
रेहमत ने क्लाइमेट ईस्ट से बातचीत में बताया, महाराष्ट्र में स्थित मनीबेली पहला गांव था जो सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित हो रही थी और डूब में आ रही थी, इसलिए 1991 में वह आंदोलन का केंद्र व प्रतीक बना। उसके बाद लुवारिया भाई का गांव जलसिंधी दूसरा गांव था तो डूब से प्रभावित हो रहा था, जलसिंधी मध्यप्रदेश में स्थित है, जबकि उसके सामने नर्मदा के दूसरी ओर महाराष्ट्र में पड़ने वाला डोमखेड़ी गांव भी इसके साथ डूड में आ रहे थे। इसलिए 1994 के आसपास जलसिंधी व डोमखेड़ी सत्याग्रह का केंद्र बने।

लुवारिया तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। उनका व उनके दो बड़े भाई गुलालिया व गुलाबिया का घर जलसिंधी गांव में सबसे निचले हिस्से में था। जलसिंधी एक पहाड़ी गांव है। यानी डूब से सबसे पहले उनका घर प्रभावित होना था। तब सरकार की ओर से वार्ता में उन्हें पूरा पुनर्वास लेकर हटने की पेशकश की गई थी, लेकिन इनका तर्क था कि डूब में गांव के अन्य घर भी आएंगे तो पहले जो घर उनके घरों से ऊपर बसे हैं, उनके लोगों को पुनर्वास दिया जाए। हालांकि सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई।
उस समय लुवारिया के गांव के ही निवासी बाबा महारिया ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को एक पत्र लिखा था, जिसमें गांव से नहीं हटने की वजह उन्होंने बतायी थी। यह चिट्ठी काफी चर्चित हुई थी।
लुवारिया के तर्क व सत्याग्रह की वजह से लंबे समय तक डेम का निर्माण रुका रहा। 1994 से 2001 तक सप्रीम कोर्ट का आदेश आने तक डेम का निर्माण रुका रहा। इस दौरान सरकार को प्रभावितों की कई मांगों पर विचार करना पड़ा। इनके परिवार जनों को गुजरात में जमीन मिली। सत्याग्रह के परिणाम स्वरूप तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने भी गुजरात सरकार पर उचित पुनर्वास के लिए दबाव बनाया था। इसके साथ ही मध्यप्रदेश में प्रभावितों के लिए कॉलोनियों का निर्माण किया गया। यह इनके सत्याग्रह व विरोध की एक उपलब्धि रही।
मध्यप्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता राहुल बनर्जी ने लुवारिया भाई के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उनके गांव जलसिंधी से जुड़े अपने अनुभवों को याद किया। उन्होंने लिखा, लुवारिया ने अपनी पुश्तैनी जमीन से हटने से इनकार कर दिया…उन्होंने जेल में कैद और पुलिस की मार झेली, लेकिन नदी को बचाने के अपने संकल्प पर अडिग रहे। उन्होंने लिखा है कि 1980 व 1990 के दशक में वे अपने संगठन खेत मजदूर चेतना संगठन की वहां बैठकें किया करते थे और इस दौरान भील आदिवासी की पौराणिक कथाएं उनसे साझा की जाती थी और वह स्थल अपने पारिस्थितिकी सौंदर्य से भरापूरा था, जहां एक झील जैसी आकृति भी थी।