हिमालयी बर्फ को ब्लैक कार्बन से खतरा, दो अरब लोगों की जल सुरक्षा हो सकती है प्रभावित

जलवायु व पर्यावरण पर रिसर्च करने वाली संस्था क्लाइमेट ट्रेंडस के एक नए अध्ययन के अनुसार, हिमालय के पश्चिमी हिस्से की तुलना में पूर्वी हिस्से की बर्फ को ब्लैक कार्बन से अधिक खतरा है, क्योंकि पूर्वी हिस्सा अधिक घना बसा है। इसलिए स्वच्छ ईंधन अपनाना, पराली जलाने पर रोक और ट्रांसपोर्ट सेक्टर में बदलाव जरूरी है।

हिमालय की बर्फ़ तेजी से पिघल रही है। पर सवाल यह है कि इसकी वजह क्या है? हमारे चूल्हों से उठता धुआं, खेतों में जलाई जा रही पराली, और गाड़ियों से निकलता धुआं – यानी ‘ब्लैक कार्बन’। ये हिमालय की बर्फ के लिए घातक हैं। दिल्ली की पर्यावरण व जलवायु विषयों पर रिसर्च करने वाली संस्था क्लाइमेट ट्रेंड्स की नई रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में हिमालयी इलाकों में बर्फ़ की सतह का तापमान औसतन 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। और यह बदलाव अचानक नहीं आया – इसकी एक बड़ी वजह है हवा में घुलता काला ज़हर।

ये ‘ब्लैक कार्बन’ दिखता तो धुएं जैसा है, लेकिन असर किसी धीमे ज़हर की तरह करता है। यह बर्फ़ पर जमकर उसकी चमक यानी रिफ्लेक्टिव ताकत को कम कर देता है, जिससे सूरज की गर्मी सीधे बर्फ़ में समा जाती है और वो तेज़ी से पिघलने लगती है।

रिपोर्ट में NASA के 23 साल के सेटेलाइट डेटा (2000-2023) का विश्लेषण किया गया है, जिससे पता चला कि 2000 से 2019 तक ब्लैक कार्बन की मात्रा में तेज़ी से इज़ाफा हुआ, जिससे हिमालय की बर्फ़ लगातार सिकुड़ती गई। 2019 के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी थमी ज़रूर है, लेकिन नुक़सान हो चुका है।

विशेषज्ञों का कहना है कि जहां ब्लैक कार्बन ज़्यादा जमा होता है, वहां बर्फ़ की मोटाई सबसे तेज़ घट रही है। इससे नदियों के जलस्तर पर असर पड़ेगा और करीब दो अरब लोगों की पानी की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है – खासतौर पर भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों में।

रिपोर्ट की मुख्य लेखिका, डॉ. पलक बलियान कहती हैं, “पूर्वी हिमालय में ब्लैक कार्बन सबसे ज़्यादा पाया गया है, क्योंकि वो इलाका ज़्यादा घना बसा है और वहां बायोमास जलाने की घटनाएं आम हैं।”

अच्छी बात ये है कि ब्लैक कार्बन ज़्यादा समय तक वातावरण में नहीं टिकता। अगर अभी इसकी मात्रा को कम किया जाए – जैसे कि चूल्हों को साफ़ ईंधन में बदला जाए, पराली जलाने पर रोक लगे, और ट्रांसपोर्ट सेक्टर साफ किया जाए – तो कुछ ही सालों में असर दिख सकता है।

क्लाइमेट ट्रेंड्स की डायरेक्टर आरती खोसला कहती हैं, “ये ऐसा मुद्दा है जहां हम जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण दोनों को एक साथ टारगेट कर सकते हैं। और इसमें जीत जल्दी मिल सकती है।”

निचोड़ यह है कि हिमालय की बर्फ़ अब उतनी ठंडी नहीं रही। अगर हम वक़्त रहते नहीं जागे, तो आने वाले सालों में पानी का संकट और तेज़ होगा। और इसका असर सिर्फ पहाड़ों तक सीमित नहीं रहेगा – मैदानी ज़िंदगी भी इसकी चपेट में आएगी।

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