
अनुभव गर्ग
बाल पोषण व स्वास्थ्य के विशेषज्ञ
मां के गर्भ से दूसरे जन्मदिन के पहले का 1000 दिन बच्चों के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। जर्मन वॉच द्वारा जारी ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2021 में भारत को जलवायु परिवर्तन से सातवां सबसे अधिक प्रभावित देश बताया गया है। बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्य बार-बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आकलनों में जलवायु जनित जोखिमों के लिए अत्यधिक संवेदनशील पाए जाते हैं।
भारत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, जहां तीव्र होती जलवायु संकट की चुनौती मानव विकास की एक बुनियादी शुरुआत – जीवन के पहले 1000 दिन – से टकरा रही है। कल्पना कीजिए एक ऐसे संसार की जहां एक मां की साँसों में भरी हवा, उसके बच्चे के पीने का पानी और उनके चारों ओर का जलवायु इस सबका प्रभाव उस बच्चे के पूरे भविष्य की दिशा तय कर सकता है।
जब जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर की चेतावनी नहीं बल्कि रोज़ की सच्चाई बन चुका है, तो इसके मौन लेकिन गहरे प्रभाव उन जीवन के प्रारंभिक चरणों को प्रभावित कर रहे हैं जो सबसे अधिक संवेदनशील हैं। यहाँ तक कि तब से जब (गर्भकाल) बच्चा जन्म भी नहीं लेता और मां के गर्भ में रहता है।
जर्मन वॉच द्वारा जारी ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (2021) में भारत को जलवायु परिवर्तन से सातवां सबसे अधिक प्रभावित देश बताया गया है, जिससे यह स्पष्ट है कि हमारा देश केवल भौगोलिक बदलावों का नहीं, बल्कि गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरे का सामना कर रहा है।
यह केवल बढ़ते तापमान या अनियमित मानसून की बात नहीं है। यह उस पहले 1000 दिनों को सुरक्षित रखने की बात है, जो इतना महत्वपूर्ण हैं कि यह पूरी एक पीढ़ी की दिशा तय कर सकता है। आइए समझते हैं कि कैसे जलवायु संकट एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल बनता जा रहा है और क्यों प्रारंभिक बाल्यावस्था की सुरक्षा को जलवायु कार्रवाई के केंद्र में होना चाहिए।
भारत की 140 करोड़ से अधिक आबादी में छह वर्ष से कम आयु के 10 प्रतिशत से अधिक बच्चे शामिल हैं, जिससे यह राष्ट्रीय नीति-निर्माताओं की जिम्मेदारी बनती है कि वे प्रारंभिक बाल विकास (इसीडी) की सुरक्षा और पोषण के लिए ठोस कदम उठाएं।
जीवन के पहले 1,000 दिन: मस्तिष्क विकास की नींव
गर्भधारण से लेकर बच्चे के दूसरे जन्मदिन तक के पहले 1,000 दिन मस्तिष्क विकास के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवसर की शुरुआत होते हैं। इस अवधि के दौरान मस्तिष्क तीव्र गति से विकसित होता है और वह न्यूरल कनेक्शन (तंत्रिका संबंध) बनते हैं जो जीवन भर की सीखने की क्षमता, व्यवहार और स्वास्थ्य की नींव रखते हैं। हार्वर्ड सेंटर ऑन द डेवलपिंग चाइल्ड के अनुसार, एक छोटे बच्चे के मस्तिष्क में हर सेकंड दस लाख से अधिक नए न्यूरल कनेक्शन बनते हैं। ये कनेक्शन मुख्यतः देखभाल करने वालों के साथ बातचीत और आसपास के वातावरण से प्रभावित होते हैं। यही शुरुआती अनुभव तंत्रिकाओं के बीच के संबंध – सिनैप्स – के निर्माण में सहायक होते हैं, जो यह निर्धारित करते हैं कि मस्तिष्क कैसे कार्य करेगा।
अनुभव-आधारित विकास: सर्व और रिटर्न की भूमिका
इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अनुभव-आधारित विकास होता है, जिसमें मस्तिष्क की संरचना प्रतिक्रियाशील और संलग्न सहभागिता के आधार पर आकार लेती है। विशेष रूप से ‘सर्व और रिटर्न’ कहे जाने वाले संवाद में देखभालकर्ता बच्चे के इशारों, ध्वनियों या अभिव्यक्तियों का सावधानीपूर्वक उत्तर देते हैं, जिससे संप्रेषण और भावनात्मक नियंत्रण से जुड़े न्यूरल सर्किट मजबूत होते हैं।

संवेदनशील काल और उनके प्रभाव
जीवन के शुरुआती वर्षों में कुछ संवेदनशील काल भी होते हैं, जब मस्तिष्क कुछ विशिष्ट क्षमताओं, जैसे भाषा, इंद्रीय कौशल और भावनात्मक संबंध को ग्रहण करने के लिए अत्यधिक ग्रहणशील होता है। यदि इन चरणों के दौरान बच्चों को उपयुक्त उत्तेजना नहीं मिलती, तो संबंधित न्यूरल सर्किट ठीक से विकसित नहीं हो पाते, जिससे भविष्य की सीखने की क्षमता और व्यवहार प्रभावित हो सकता है।
सिनैप्टिक प्रूनिंग: उपयोग करो या खो दो
विकास की प्रक्रिया के साथ-साथ मस्तिष्क एक प्राकृतिक प्रक्रिया से गुजरता है, जिसे सिनैप्टिक प्रूनिंग कहा जाता है। इसमें कम उपयोग किए गए संबंध समाप्त हो जाते हैं और बार-बार उपयोग किए गए संबंध मजबूत होते हैं। यह यूज़ इट या लूज़ इट तंत्र मस्तिष्क की दक्षता को बढ़ाता है और यह पूरी तरह बच्चे के अनुभवों पर आधारित होता है।
विषाक्त तनावयुक्त वातावरण का प्रभाव
हालांकि, उपेक्षा, दुर्व्यवहार या निरंतर प्रतिकूल वातावरण जैसे कारणों से उत्पन्न दीर्घकालिक या विषाक्त तनाव मस्तिष्क विकास में गंभीर बाधा उत्पन्न कर सकता है। शरीर की तनाव प्रतिक्रिया प्रणाली के लंबे समय तक सक्रिय रहने से उत्पन्न तनाव हार्माेन मस्तिष्क के उन हिस्सों में न्यूरल सर्किट के विकास को प्रभावित कर सकते हैं जो भावनात्मक नियंत्रण, सीखने और स्मृति से संबंधित होते हैं।
नई दिशाएं: मस्तिष्क विकास में जीन + अनुभव
लगभग दो दशक पहले वैज्ञानिक समुदाय ने इस महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर सहमति जताई थी कि बच्चों का मस्तिष्क विकास केवल अनुवांशिकता या अनुभव से नहीं होता, बल्कि दोनों के बीच गत्यात्मक अंतःक्रिया के कारण होता है। यह समझ प्रकृति बनाम पालन-पोषण की पारंपरिक बहस से हटकर मानव विकास के एक समेकित मॉडल की ओर बढ़ी, जिसमें जैविक और पर्यावरणीय दोनों कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया गया।
जीन: मस्तिष्क विकास की रूपरेखा
जीन मस्तिष्क विकास के लिए जैविक आधार प्रदान करते हैं। वे मस्तिष्क की संरचना और तंत्रिका नेटवर्क के निर्माण के लिए आवश्यक निर्देशों को वहन करते हैं। गर्भधारण के क्षण से ही जीन यह निर्धारित करते हैं कि कितने न्यूरॉन्स बनेंगे, वे कहाँ और कैसे जुड़ेंगे, और कौन-से विकासात्मक चरण कब होंगे।
हालांकि, जीन अकेले कार्य नहीं करते। उनका क्रियान्वयन पर्यावरणीय संकेतों पर निर्भर करता है। वास्तव में, कई जीनों को सक्रिय या निष्क्रिय करने के लिए पर्यावरणीय इनपुट की आवश्यकता होती है। इसे इपीजेनेटिक्स कहा जाता है (हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, 2007)। इसका अर्थ है कि अनुभवों द्वारा जीन की अभिव्यक्ति को बदला जा सकता है, जिससे पर्यावरण मस्तिष्क विकास में एक सक्रिय भागीदार बन जाता है।
अनुभव: मस्तिष्क की संरचना को आकार देना
विशेषकर प्रारंभिक बाल्यावस्था में, अनुभव मस्तिष्क विकास को सक्रिय रूप से प्रभावित करते हैं। बच्चे द्वारा देखभालकर्ताओं, साथियों और वातावरण से की गई हर बातचीत मस्तिष्क में विद्युत संकेत भेजती है। ये संकेत कुछ कनेक्शन को मजबूत करते हैं और कुछ को कमज़ोर करते हैं। इसे अनुभव-निर्भर सिनैप्टिक प्लास्टिसिटी कहा जाता है।
सकारात्मक प्रारंभिक अनुभव जैसे संवेदनशील देखभाल, समृद्ध इंद्रीय उत्तेजना, पोषण और भावनात्मक सुरक्षा, जलवायु अनुकूलता ऐसा वातावरण बनाते हैं जो मस्तिष्क के सर्वाेत्तम विकास को प्रोत्साहित करता है। इसके विपरीत, विषाक्त तनाव, उपेक्षा, प्रतिकूल वातावरण या अपर्याप्त उत्तेजना इन प्रक्रियाओं को बाधित कर सकते हैं, जिससे कमजोर न्यूरल कनेक्शन बनते हैं और बच्चे के संज्ञानात्मक, भावनात्मक व शारीरिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकते हैं।

महत्वपूर्ण अवसर की शुरुआत: एक अनूठा मौका
जीवन के प्रारंभिक वर्ष – विशेषकर गर्भधारण से लेकर दो वर्ष की उम्र तक के पहले 1,000 दिन – वह समय होता है जब मस्तिष्क सबसे अधिक लचीला (malleable) होता है। इस काल में की गई शुरुआती पहलों का बच्चे के भविष्य पर गहरा और स्थायी प्रभाव हो सकता है।
इस महत्वपूर्ण अवधि में बच्चों को तीन मूलभूत सहारे चाहिए
पोषण: उपयुक्त पोषण मायेलिन (जो न्यूरॉन्स को इंसुलेट करता है) के विकास को प्रोत्साहित करता है, न्यूरोट्रांसमीटर संश्लेषण में सहायक होता है और समग्र मस्तिष्क वृद्धि को बढ़ावा देता है।
उत्तेजना: बातचीत, पढ़ना, गाना और खेलना जैसी गतिविधियाँ भाषा, संज्ञानात्मक क्षमता और भावनात्मक नियंत्रण से जुड़े सर्किट को सक्रिय करती हैं।
सुरक्षा: देखभालकर्ताओं के साथ स्थिर और प्रेमपूर्ण संबंध बच्चों को तनाव से बचाते हैं और स्वस्थ मस्तिष्क संरचना के विकास को प्रोत्साहित करते हैं।
जीन + अनुभव = मस्तिष्क विकास
विकसित होता हुआ मस्तिष्क अनुवांशिक संभावनाओं और जीवन के अनुभवों के मेल से आकार लेता है। भले ही जीन किसी बच्चे को कुछ विशेष गुणों या क्षमताओं के लिए तैयार करें, लेकिन इन क्षमताओं का विकास पर्यावरण की गुणवत्ता पर बहुत अधिक निर्भर करता है।
यह एकीकृत दृष्टिकोण इस बात को रेखांकित करता है कि बच्चों को उनके शुरुआती वर्षों में सहानुभूतिपूर्ण, संलग्न और पोषण प्रदान करने वाले वातावरण की आवश्यकता होती है, ताकि वे अपनी पूर्ण क्षमताओं का विकास कर सकें। नीति-निर्माताओं, देखभालकर्ताओं और समुदायों को यह समझना होगा कि जीन और अनुभव के बीच का तालमेल बच्चों के भविष्य के लिए कितना निर्णायक है। प्रारंभिक बाल विकास (Early Childhood Development – ECD) में निवेश केवल नैतिक कर्तव्य नहीं, बल्कि समाज के भविष्य में निवेश है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019–21) के चौंकाने वाले आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत में 5 वर्ष से कम आयु के 35.5 प्रतिशत बच्चे ठिगने हैं और 32.1 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। यह स्थिति पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच और पर्यावरणीय सुरक्षा में गहरे संकट को दर्शाती है।
जलवायु परिवर्तन एक जोखिम गुणक (Risk Multiplier) की भूमिका निभा रहा है। यह खाद्य प्रणालियों को कमजोर करता है, जलजनित और मच्छरजनित बीमारियों को फैलाता है और आवश्यक स्वास्थ्य एवं प्रारंभिक शिक्षा सेवाओं की पहुँच को सीमित करता है, जिसका सबसे अधिक असर भारत के सबसे कमजोर समुदायों पर पड़ता है।
यूनिसेफ द्वारा जारी ‘चिल्ड्रेन क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (2021)’ के अनुसार, भारत को बच्चों की जलवायु जोखिम के मामले में अत्यधिक उच्च जोखिम श्रेणी में रखा गया है। विशेष रूप से लू, बाढ़ और खराब वायु गुणवत्ता जैसे प्रभावों के लिए।
इन जोखिमों को कम करने और लचीलापन विकसित करने के लिए, भारत को पारंपरिक अधोसंरचना समाधानों से आगे सोचना होगा। प्रकृति-आधारित, बाल-संवेदनशील खेल स्थान एक नवीन, सतत और कम लागत वाली अनुकूलन रणनीति प्रस्तुत करते हैं।
ये हरित क्षेत्र जिनमें पेड़, प्राकृतिक ज़मीन की परत और जल स्रोत शामिल होते हैं, ठंडी सूक्ष्म जलवायु प्रदान करते हैं, वायु गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं, और साथ ही संज्ञानात्मक उत्तेजना, भावनात्मक जुड़ाव और सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण स्थान उपलब्ध कराते हैं।
वैन लियर फाउंडेशन संस्था और इसके अर्बन 95 पहल द्वारा किए गए अनुसंधान से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार बाल संवेदनशील जलवायु वातावरण लचीलापन प्रारंभिक बाल्यावस्था विकास को सकारात्मक सहयोग प्रदान करते हैं।
नीतिगत परिदृश्य में परिवर्तन की पर्याप्त संभावना है। भारत की राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC) और राज्य स्तरीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजनाएं (SAPCCs) पहले से ही पारिस्थितिकीय आधारित अनुकूलन (ecosystem-based adaptation) का समर्थन करती हैं। इन्हें ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF), ग्लोबल एनवायरनमेंट फैसिलिटी (GEF) और हाल ही में चालू हुए लॉस एंड डैमेज फंड जैसे बहुपक्षीय जलवायु वित्त स्रोतों के साथ जोड़कर शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में बाल केंद्रित हरित अवसंरचना को बड़े स्तर पर लागू किया जा सकता है।
लॉस एंड डैमेज फंड, जिस कॉप27 में अपनाया गया और कॉप28 में क्रियान्वित किया गया, एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। जैसे-जैसे चक्रवात अम्फान (2020) और हिमाचल प्रदेश में आई बाढ़ (2023) जैसी आपदाएं जीवन को बाधित कर रही हैं, वैसे-वैसे प्राकतिक हरित वास्तुकला और स्थानीय संसाधनों के माध्यम से आंगनवाड़ी, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और खेल क्षेत्रों का जलवायु अनुकूल लचीला पुनर्निर्माण जोखिम-युक्त क्षेत्रों में छोटे बच्चों के लिए एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।

प्रथम 1000 दिन परियोजना के तहत उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले में डिजाइन किया गया एक आंगनबाड़ी केंद्र।
इसके अतिरिक्त, भारत की प्रमुख योजनाएँ जैसे पोषण अभियान, सक्षम आंगनवाड़ी, और स्मार्ट सिटी मिशन को जलवायु वित्त पोषण के साथ एकीकृत कर प्रारंभिक बाल्यावस्था के बुनियादी ढांचे को पुनः परिभाषित किया जा सकता है। सौर ऊर्जा चालित केंद्र, वर्षा जल संचयन प्रणालियां, छायादार खुले खेल क्षेत्र, और पेड़ों से घिरे परिसर नए मानक बन सकते हैं। साथ ही, जीआइएस आधारित जोखिम मानचित्रण और सैटेलाइट रिमोट सेंसिंग जैसे तकनीकी उपकरण, सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में प्राथमिकता के साथ हस्तक्षेप करने में सहायता कर सकते हैं।
स्थिति अत्यंत गंभीर है। 2024-25 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष के 93 प्रतिशत दिन चरम मौसम की घटनाओं से प्रभावित रहे, जिससे खाद्य सुरक्षा, आर्थिक स्थिरता और सामाजिक समरसता खतरे में पड़ गई। अनुमानों के अनुसार, एक अनुमान के अनुसार यदि जलवायु अनुकूलन उपायों को शीघ्रता से लागू नहीं किया गया, तो जलवायु परिवर्तन भारत की वार्षिक जीडीपी को 3 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक घटा सकता है।
बच्चे जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार हैं, लेकिन सबसे अधिक उसका बोझ उठाते हैं। प्रारंभिक बाल विकास को समर्थन देने वाले प्रकृति-आधारित समाधानों में निवेश अब केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि एक नैतिक, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकता है। भारत के पास अपनी जलवायु और विकास नीतियों को समेकित करने का, एक ऐसा ऐतिहासिक अवसर है जिससे वह वश्विक स्तर पर नेतृत्व कर सकता है। एक जलवायु-स्मार्ट भविष्य की दिशा में जहाँ हर बच्चा, विशेष रूप से अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण 1000 दिनों में, समृद्ध ,स्वास्थ्य एवं पोषित हो सके।
यह केवल जलवायु अनुकूलन की बात नहीं है, यह न्याय की बात है
सकल घरेलू जलवायु जोखिम (Gross Domestic Climate Risk – GDCR) : भविष्य की लचीलापन योजना के लिए एक उपकरण क्रॉस डिपेंडेंसी इनिशिएटिव (XDI) द्वारा विकसित सकल घरेलू जलवायु जोखिम(GDCR) एक ठोस, डेटा-आधारित मॉडल है, जो वश्विक स्तर पर क्षेत्रों में जलवायु संबंधित जोखिमों का मूल्यांकन और रैंकिंग करता है।
यह मॉडल जलवायु परिवर्तन के तीव्र होते प्रभावों के कारण निर्मित अवसंरचना से होने वाली संभावित आर्थिक क्षति का आकलन करता है। भारत के संदर्भ में, जीडीसीआर राज्य-स्तरीय विश्लेषण प्रदान करता है, जो विभिन्न वैश्विक तापवृद्धि परिदृश्यों में भौतिक जलवायु जोखिमों का मूल्यांकन करता है। यह मूल्यांकन यह समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है कि किस क्षेत्र में किस हद तक जोखिम मौजूद हैं और भविष्य में किन स्थानों पर जलवायु अनुकूलन की अधिक आवश्यकता होगी।
प्रमुख विशेषताएँ और कार्यप्रणाली की रूपरेखा
जीडीसीआर ढाँचा मुख्य रूप से निर्मित पर्यावरण – जैसे भवन, परिवहन नेटवर्क, और उपयोगिता प्रणालियों, पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभावों पर केंद्रित है। यह मॉडल बाढ़, समुद्र स्तर में वृद्धि और अत्यधिक गर्मी जैसे विभिन्न खतरों को ध्यान में रखता है, जो भारत के शहरी और ग्रामीण परिदृश्यों को तेजी से प्रभावित कर रहे हैं।
इस पद्धति को वैज्ञानिक रूप से मान्यता प्राप्त जलवायु मॉडल्स जैसे कि Coupled Model Intercomparison Project Phase 6 (CMIP6) और स्थानीय जोखिम डेटा के आधार पर विकसित किया गया है। यह संयुक्त दृष्टिकोण समय के साथ संभावित परिसंपत्ति मूल्य हानि के संदर्भ में भौतिक जोखिम का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम बनाता है। इस मॉडल की सटीकता नीति निर्माताओं और योजनाकारों को यह समझने में मदद करती है कि किस हद तक अवसंरचना को नुकसान पहुँच सकता है – और उसे रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए।
विभिन्न उत्सर्जन परिदृश्यों के तहत अपेक्षित प्रभावों का पूर्वानुमान लगाकर, यह मॉडल लक्षित जलवायु अनुकूलन रणनीतियों के निर्माण में सहायक सिद्ध होता है।
मुख्य निष्कर्ष : सबसे अधिक जोखिम वाले राज्य
GDCR मूल्यांकन के अनुसार, भारत के कई राज्य जलवायु-प्रेरित क्षति के प्रति अत्यधिक संवेदनशील पाए गए हैं। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार उच्च जोखिम वाले राज्यों के रूप में सामने आए हैं, जिसका कारण है – जनसंख्या घनत्व अधिक होना, आधारभूत संरचनाओं का व्यापक जोखिम, और लगातार चरम मौसम की घटनाएं। ये निष्कर्ष इन क्षेत्रों में लचीली शहरी योजना, जलवायु अनुकूल अवसंरचना, और अनुकूलन पर निवेश की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। यह मॉडल आर्थिक जोखिम पर विशेष जोर देता है, जो यह दर्शाता है कि जलवायु घटनाएं आजीविका, सार्वजनिक सेवाओं और दीर्घकालिक विकास पर कैसे व्यापक प्रभाव डाल सकती हैं।
जलवायु-संवेदनशील राज्यों की पहचान
विभिन्न अध्ययनों ने GDCR निष्कर्षों का समर्थन किया है, जो यह इंगित करते हैं कि कई भारतीय राज्य जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्य बार-बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आकलनों में जलवायु-जनित जोखिमों के लिए अत्यधिक संवेदनशील पाए जाते हैं। भौगोलिक स्थिति, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ, और सीमित अनुकूलन क्षमता उनके जोखिम स्तर को और भी बढ़ा देती हैं।
इन जोखिमों के मद्देनज़र, राज्य-विशिष्ट रणनीतियों की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप हों, लेकिन स्थानीय डेटा और प्राथमिकताओं को भी ध्यान में रखें। विभिन्न राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजनाओं (SAPCCs) की समीक्षा से यह ज्ञात होता है कि तैयारियों के स्तर में राज्य दर राज्य भिन्नता है—कुछ राज्य जहाँ जोखिम आकलन और क्षेत्रीय अनुकूलन योजनाओं को शामिल कर रहे हैं, वहीं कई अन्य अभी भी ठोस क्रियान्वयन ढांचे से पीछे हैं।

बच्चों के इस शौचालय को इस तरह डिजाइन किया गया है कि तसवीरें देख कर बच्चे स्वच्छता के महत्व को समझ सकते हैं।
बाल केंद्रित जलवायु नीति की ओर : UNICEF से अंतर्दृष्टियाँ
जलवायु परिवर्तन कार्यवाही योजनाओं का मूल्यांकन करते समय, शिशु एवं बाल-सम्वेदनशील दृष्टिकोण अत्यंत आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन बच्चों को विशेष रूप से प्रभावित करता है, खासकर उन भौगोलिक क्षेत्रों में जो पहले से ही जोखिम में हैं, क्योंकि यह स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
यूनिसेफ द्वारा समर्थित एक अध्ययन ने पेरिस समझौते के तहत प्रस्तुत 160 राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान (NDCs) और 13 राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं (NAPs) का विश्लेषण किया, ताकि यह आकलन किया जा सके कि ये योजनाएं बच्चों के अधिकारों, आवश्यकताओं और सहभागिता को किस हद तक शामिल करती हैं।
अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि यद्यपि कुछ प्रगति हुई है, फिर भी अधिकांश NDCs में अभी तक बच्चों की विशिष्ट संवेदनशीलताओं को संबोधित करने के लिए स्पष्ट प्रतिबद्धताओं का अभाव है, और बहुत कम देशों ने बच्चों को योजना निर्माण प्रक्रिया में शामिल किया।
इस क्षेत्र में सुधार को बढ़ावा देने के लिए, यूनिसेफ ने “क्या जलवायु परिवर्तन नीतियाँ बच्चों के लिए संवेदनशील हैं? एक कार्यवाही हेतु मार्गदर्शिका” नामक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बाल केंद्रित जलवायु कार्रवाई को बढ़ाने हेतु सिफारिशें दी गई हैं। साथ ही, उन्होंने “NDCs for Every Child” डेटा प्लेटफ़ॉर्म और “Child- and Youth-Sensitive Nationally Determined Contributions” नामक मार्गदर्शक दस्तावेज़ भी जारी किया है, जो नीति निर्माताओं को अधिक समावेशी और उत्तरदायी जलवायु नीतियाँ बनाने में मदद करता है।
भारत की जलवायु अनुकूलन और शमन (mitigation) प्रयासों में इस दृष्टिकोण का एकीकरण अत्यंत आवश्यक है। यह आह्वान करता है कि योजना निर्माण समावेशी हो – जिसमें छोटे बच्चों और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ऐसा बुनियादी ढांचा और लचीलापन विकसित किया जाए, जो बच्चों के समग्र विकास के परिणामों को भी सुदृढ़ बनाए।
उत्तर प्रदेश की SAPCC (राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना) में प्रारंभिक जलवायु शिक्षा, वार्षिक जन-जागरूकता कार्यशालाएँ, और बच्चों में जलवायु जनित बीमारियों की रोकथाम हेतु स्वास्थ्य-केन्द्रित स्कूल पाठ्यक्रम शामिल हैं – जो जलवायु योजना में स्वास्थ्य और शिक्षा का एक एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
क्रियान्वयन और नीति एकीकरण में चुनौतियाँ
कुछ सकारात्मक उदाहरणों के बावजूद, कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं। सबसे बड़ी समस्या वित्त पोषण की है, जहाँ प्रारंभिक बाल्यकाल विकास (ECD) से जुड़े घटकों को जलवायु निधियों में नाममात्र हिस्सा मिलता है।
एक अन्य गंभीर चुनौती है जलवायु परिवर्तन और ECD प्रारंभिक बाल्य विकास अथवा महिला एवं बाल विकास से संबंधित विभागों के बीच आपसी समन्वय की कमी, जिसके कारण नीति प्रतिक्रियाएँ बिखरी हुई और असंगठित होती हैं।
इसके अतिरिक्त, SAPCC बाल संवेदनशील स्थानों के पुनः निर्माण, नवीनीकरण और कार्यान्वयन में ECD बाल संवेदनशील हितधारकों की भागीदारी सीमित है, जिससे योजनाएँ सेवा वितरण की जमीनी हकीकतों को नहीं दर्शा पातीं।
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न घटनाएँ अक्सर पोषण, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी मौलिक सामाजिक सेवाओं को बाधित करती हैं, परंतु इन व्यवधानों को जलवायु नीतियों में शायद ही कभी स्वीकार या संबोधित किया जाता है।
सुझाव : SAPCC नीति निर्माताओं, महिला एवं बाल विकास विभाग, पंचायती राज संस्थानों और सभी विकास भागीदारों के लिए जलवायु लचीलापन योजना में छोटे बच्चों की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हैं:
- वित्तीय संसाधन जुटाना: नीति निर्माताओं को Green Climate Fund, Global Environment Facility, और Loss and Damage Fund जैसे बहुपक्षीय जलवायु वित्त पोषण तंत्रों का उपयोग करना चाहिए, ताकि बच्चों के जीवन के पहले 1,000 दिनों के दौरान की जाने वाली सेवाओं एवं हस्तक्षेपों को समेकित दृष्टिकोण के तहत समर्थन मिल सके।
- संस्थागत प्रतिनिधित्व: महिला एवं बाल विकास विभाग और बाल अधिकार संरक्षण निकायों के प्रतिनिधियों को संचालन समितियों में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि बच्चों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जा सके।
- नीति समेकन: एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS), एकीकृत बाल संरक्षण योजना (ICPS), और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत प्रारंभिक बाल शिक्षा घटक जैसी बाल-केंद्रित योजनाओं को पुनःनिर्माण, जागरूकता के उद्देश्यों के साथ संरेखित किया जाना चाहिए।
- क्षमता अभिवृद्धि : पैरामेडिकल स्टाफ, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, देखभालकर्ता और शिक्षकों को जलवायु आपात स्थितियों के दौरान प्रभावी प्रतिक्रिया देने हेतु प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, ताकि बच्चों की देखभाल और शिक्षा में निरंतरता बनी रहे।
- डिजिटल और दूरस्थ सेवाएँ: राज्यों को चाहिए कि वे डिजिटल स्वास्थ्य और शिक्षा प्लेटफ़ॉर्म के विकास और विस्तार को प्राथमिकता दें, ताकि जलवायु जनित व्यवधानों के दौरान भी आवश्यक सेवाएँ चालू रखी जा सकें।
- अवसंरचना लचीलापन: सभी बाल-केंद्रित संवेदनशील अवसंरचनाओं को जलवायु-अनुकूल बनाया जाना चाहिए, जिसमें बालिकाओं के लिए पृथक शौचालय सुविधाएँ और आपातकाल की स्थिति में सुरक्षित एवं निजी स्तनपान क्षेत्र शामिल हों।
निष्कर्ष:
बच्चे जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, परंतु सबसे अधिक प्रभाव झेलते हैं। इसलिए, प्राकृतिक समाधानों में निवेश – जो प्रारंभिक बाल्यकाल विकास को भी सशक्त बनाएं – सिर्फ एक विकल्प नहीं, बल्कि नैतिक, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकता है। जलवायु अनुकूल एवं बाल संवेदनशील स्थानों के निर्माण, पुनर्निर्माण, नवाचार जैसी योजनाओं में बच्चों को केंद्र में रखना, केवल जलवायु अनुकूलन नहीं, बल्कि न्याय की दिशा में एक ठोस कदम है। तेजी से बढ़ते जलवायु परिवर्तन के दौर में भारत को अपनी जलवायु और विकास रणनीतियों के केंद्र में अपने सबसे छोटे और सबसे संवेदनशील नागरिकों – जीवन के पहले 1,000 दिनों में बच्चों – को तत्काल स्थान देना होगा। यह प्रारंभिक समयावधि बच्चे के जीवनभर के स्वास्थ्य, सीखने की क्षमता और जलवायु अनुकूलन की नींव रखती है, फिर भी यह जलवायु नीतियों में गंभीर रूप से उपेक्षित है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि जलवायु संकट, कुपोषण, बीमारियाँ और सेवाओं में रुकावट जैसे विकासात्मक संकटों को और अधिक गहरा बना रहा है। ऐसे में एक साहसिक, समेकित और बाल-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता। भारत के पास इस समय एक अद्वितीय अवसर है। यदि हम प्राकृतिक समाधानों, जलवायु-अनुकूल अवसंरचना, डिजिटल सेवा वितरण और समावेशी शासन के माध्यम से जलवायु अनुकूलन को प्रारंभिक बाल विकास से जोड़ते हैं, तो न केवल हम अपने बच्चों को सुरक्षित कर सकते हैं, बल्कि एक जलवायु-स्मार्ट और न्यायसंगत भविष्य के निर्माण में वैश्विक नेतृत्व भी कर सकते हैं।
आगे का रास्ता स्पष्ट है:
बचपन को जलवायु-सुरक्षित बनाना केवल अनुकूलन (adaptation) का कार्य नहीं है – यह एक न्यायपूर्ण कदम है, एक राष्ट्रीय निवेश है, और पीढ़ीगत उत्तरदायित्व का प्रतीक है।
भारत के बच्चों का भविष्य – और वास्तव में, भारत का भविष्य – इस बात पर निर्भर करता है कि हम आज क्या निर्णय लेते हैं।
(लेखक उत्तरप्रदेश में Van Leer Foundation द्वारा समर्थित बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित टेक्लिकल इंल्पीमेंटेशन यूनिट में सीनियर कंसल्टेंट (सीनियर प्रोग्राम ऑफिसर) के रूप में कार्य करते हैं।)
(तसवीर स्रोत: अनुभव गर्ग।)