मनरेगा: गांवों की खुशहाली की कुंजी रोजगार गारंटी कानून के अहम पड़ाव व चुनौतियां

जेम्स हेरंज

राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) जिसके नाम में बाद में महात्मा गांधी का नाम जोड़ कर महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) कर दिया गया, अपने दो दशक के सफर को लगभग पूरा करने वाला है। झारखंड जैसे राज्य में जहां पलायन बड़ी समस्या रही है और बड़ी आदिवासी आबादी है, गरीबी भी है, उसके लिए यह कानून सबसे गरीब लोगों को रोजगार की गारंटी देने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण रहा है। झारखंड में ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून की इस लंबी यात्रा के कई महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं और नई परिस्थितियों में कई चुनौतियों भी उभरी हैं। हम यहां उस पर प्रमुखता से चर्चा करेंगे।

मनरेगा में यह प्रावधान है कि कानून के क्रियान्वयन व योजनाओं के प्रभाव का आकलन करने के लिए सोशल ऑडिट भी किया जाएगा। वर्ष 2007 में कानून में लिखे गए सोशल ऑडिट का प्रथम प्रयोग झारखंड के राँची जिले में किया गया था। जिसका निष्कर्ष यह था कि कि कानून के क्रियान्वयन हेतु कोई मशीनरी, कोई प्रशासनिक ढाँचा नहीं है। ऐसे में राष्ट्रीय कानून का क्रियान्वयन ब्यवहारिक धरातल पर उतारेगा कौन? भारत सरकार के अधिकारियों ने राज्य सरकार के अधिकारियों को मंच पर ही निर्देशित किया कि नियत समय में मनरेगा योजनाओं और गतिविधियों को संचालित करने वाले कर्मियों की नियुक्ति करें। फलस्वरूप राज्य में ग्राम रोजगार सेवक, प्रखण्ड कार्यक्रम पदाधिकारी, लेखापाल, कंप्युटर ऑपरेटर आदि बहाल किए गए।

2008 में 14 मई को पलामू जिले के छत्तरपुर में सोशल ऑडिट प्रक्रिया के दौरान प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और संस्था के सचिव ललित मेहता की निर्मम हत्या कर दी गई। पर, सामाजिक अंकेक्षण सह जनसुनवाई की प्रक्रिया नहीं रुकी और 26 मई 2008 को छत्तरपुर में एक विशाल जनसुनवाई सम्पन्न हुई। इसमें तत्कालीन नरेगा आयुक्त अमिताभ कौशल स्वयं मौजूद थे। बाद में उन्हें पलामू जिले का ही डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया।

राज्य में जहाँ मनरेगा मुद्दे से संबंधित दर्जनों हिंसक घटनाएं हो रही थीं, वहीं दूसरी तरफ इस मुद्दे पर कार्य करने वाले सामाजिक संगठनों की अगुवाई में मजदूरों को संगठित करने के कार्य भी जारी थे। मजदूरों के जरिए लगातार, पंजीयन के आवेदन, काम के आवेदन, बकाया मजदूरी के आवेदन, बेरोजगारी के आवेदन सौंपे जा रहे थे। परंतु ब्यूरोक्रेट्स मजदूरों के मामलों में संवेदनहीन रवैया अपनाते रहे थे। उधर जाने माने सामाजिक कार्यकर्त्ता सह जी पंत सामाजिक संस्थान के अतिथि प्रो ज्यां द्रेज केंद्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी के सदस्य होने की भूमिका को सजगता से निभा रहे थे। वेे राज्य में नरेगा की जमीनी हालात को लेकर राज्य के अधिकारियों से निरंतर जूझ रहे थे। सक्रिय सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर झारखंड लीगल सर्विस ऑथोरिटी के अधिकारियों से मिलकर नरेगा मामलों में कानूनी हस्तक्षेप करने का आग्रह किया गया। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की पहल पर लातेहार जिला मुख्यालय में 7 फरवरी 2009 को देश की पहला नरेगा लोक अदालत बैठी। जिसमें नरेगा संबंधी 20 हजार से अधिक आवेदनों पर सुनवाई सम्पन्न हुई थी। इसी लोक अदालत में मनिका प्रखण्ड के 76 मजदूरों को पहली बार कानूनी प्रावधान के अनुसार बेरोजगारी भत्ता का भुगतान जिला प्रशासन ने किया। और संबंधित प्रखंड विकास पदाधिकारी पर नरेगा की धारा 25 के तहत 1000 रुपये का आर्थिक दंड लगाया गया।

राज्य से गाँवों को योजनाएं थोपा जाना सरकार का कानून पर पहला हमला

झारखंड सरकार ने वर्ष 2010 से कानूनी प्रावधानों पर हमले शुरू कर दिए थे, जब ग्रामीण विकास विभाग ने राज्य के प्रत्येक पंचायत में नरेगा से 50-50 सिंचाई कूप निर्माण का फरमान जारी किया गया। सरकार के इस अव्यवहारिक प्रशासन का नरेगा मुद्दे पर कार्य करने वाला राज्यव्यापी मंच झारखंड नरेगा वाच ने तीखी आलोचना की थी। सरकार के इस अड़ियल रवैये के कारण 2011 में योजनाएं तो प्रारंभ किए गये, परंतु अफसर-नेता-बिचौलिया तिकड़ी के व्यापक भ्रष्टाचार की वजहों से इस वर्ष बरसात में अधिकांश कुएं अधूरे रहे और उनमें से कई कुएं धंस गए। इसी वर्ष राज्य में एक और हिंसक घटना घटी जिसमें ज्यां ड्रेज के नजदीकी सहकर्मी नेयमत अंसारी की ठेकेदारों ने हथियारबंद दस्ते से नृशंस हत्या करा दी थी। इस हत्या से एक बार फिर राज्य सरकार विवादों के घेरे में आ गई। तब भारत सरकार ने ख्याति प्राप्त समाजकर्मी अरुणा राय एवं देश के सीनियर रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों की एक समिति गठित की। उन्हें राज्य में नरेगा के क्रियान्वयन में सुधार के ब्यापक और व्यवहारिक सुझावों पर विस्तृत रिपोर्ट सौंपने की प्रशासनिक जिम्मेदारी दी गई। इस उच्च स्तरीय समिति ने झारखंड के परिप्रेक्ष्य में सिर्फ रिपोर्ट सौंपना उचित नहीं समझा, बल्कि मनरेगा के विभिन्न आयामों यथा मजदूरी भुगतान, ग्रामसभा के माध्यम योजना निर्माण, माइनिंग क्षेत्र में मनरेगा, काम की माँग, पारदर्शिता, सामाजिक अंकेक्षण आदि विषयों पर झारखंड के अलग-अलग सिविल सोसायटी के साथ दो सालों तक पायलट करने का सुझाव दिया। इसमें झारखंड नरेगा वॉच ने राज्य सरकार के साथ नियमित समन्वय बनाया और पायलट परियोजना के काफी सकारात्मक परिणाम भी आए।

पश्चिम सिंहभूम जिले के गोलासाईं गाँव के मनरेगा के अनियमितता से जुड़ा एक दृश्य। फोटो: जेम्स हेरंज।

उन्हीं दिनों झारखंड में सोशल ऑडिट और प्रक्रिया को सही मायने में जमीन पर उतारने की दिशा में कार्य हुए। उस दौर में झारखंड नरेगा वॉच से जुड़े सिविल सोसायटी सदस्यों के साथ मिलकर राज्य भर के जिला मुख्यालयों में सरकारी और गैरसरकारी सदस्यों का ब्यवहारिक प्रशिक्षण, सोशल ऑडिट प्रक्रिया की निकटता से निगरानी, कार्यस्थलों पर होने वाले भ्रष्टाचार पर त्वरित शिकायत, सोशल ऑडिट प्रक्रिया के उपरांत पंचायत, प्रखण्ड, जिला एवं राज्य स्तरीय जानुसंवाईयों में क्रियान्वयन एजेंसियों द्वारा तथ्यों को छुपाये जाने पर सामाजिक संगठनों का हल्ला बोल जैसे गतिविधियों के कारण ठेकेदार मनरेगा योजनाओं से दूर होते चले गए। 2011 में पहली बार मनरेगा के कानूनी प्रावधानों के आलोक में मनरेगा लोकपालों की नियुक्ति भी हुई। कई लोकपालों ने ऐतिहासिक फैसले देकर लोगों में मनरेगा के प्रति मजदूरों का विश्वास हासिल किए। झारखंड में 32 सालों बाद 2010 में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में पदधारी मुखिया को पहले पहल 2012 में मनरेगा मद में खर्चों के भुगतान हेतु चेक निर्गत करने का वित्तीय अधिकार मुखियों को सरकार ने हस्तांतरित किए।

उधर 2010 में राज्य सरकार के आदेशानुसार प्रति पंचायत 50 कूप निर्माण का कार्य कई कारणों से ठीक ढंग से संचालित नहीं हो रहा था। 2012 में भी कूप बंधाई नहीं हो पाने के शंकाएं बनती जा रही। झारखंड नरेगा वॉच इस विफलता को लेकर अक्सर राज्य सरकार और उच्च स्तरीय समिति के समक्ष तथ्यों के साथ आवाज बुलंद करता रहा। 2012 में एक समय ऐसा भी आया कि मनरेगा से जुड़े कर्मी व अधिकारीगण कूप निर्माण योजना को लेकर नियमित समीक्षा करने लगे। ये समीक्षा कई बार इतनी कड़ाई से की जाने लगी कि निचले स्तर के कर्मचारी सिर्फ कागजों में कूप निर्माण को पूर्ण करने के फर्जी आँकड़े प्रस्तुत करने को विवश हुए। इस वर्ष भी बरसात में कई कुएं ध्वस्त हुए लेकिन बावजूद इसके कागजों में पूर्ण दिखाए जाते रहे। झारखंड नरेगा वॉच ने पलामू जिले में आरटीआई से सूचना हासिल कर करीब 200 पूर्ण कूप योजनाओं का निर्माण स्थल सत्यापन कर जिला स्तरीय जनसुनवाई की। इसमें पाया गया कि आधे से अधिक कूप निर्माण में मजदूरों का मजदूरी भुगतान बकाया है और निर्माण कार्य आधूरे हैं। सतबरवा प्रखण्ड के रबदा पंचायत में 2 कुएं ऐसे भी थे, जिनमें खुदाई भी प्रारंभ नहीं किया गया था, अधिकांश कुएं बरसात में धंस भी गए थे।

जन सुनवाई की आधिकारिक रिपोर्ट राज्य सरकार और ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधिकारियों को सौंपी गई। केंद्र ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वो मामले की जांच करे। राज्य सरकार ने भी अपनी जांच में झारखंड नरेगा वॉच में उल्लेखित बिंदुओं को सही पाया और बाद में विशेष पैकेज जारी कर बकाये मजदूरी राशि का भुगतान किया था। साथ ही अधूरे कूप निर्माण कार्य को पूर्ण किया गया था। यह वाकया 2013 का है।

वर्ष 2013 तक मनरेगा मद के आय-व्यय का खाता बही मिलान करने में काफी तकनीकी दिक्कतें प्रशासनिक अधिकारियों के समक्ष थीं। ग्रामीण विकास मंत्रालय से मनरेगा फंड राज्य सरकार के खाते में आता। फिर उसे जिलों को हस्तांतरित किया जाता था। जिले के अधिकारी उसे उसे प्रखण्डों के खाते में भेजते और प्रखण्ड के अधिकारी उसे पंचायतों के खाते में भेजते। फिर खर्चे का हिसाब भी इसी रास्ते मंत्रालय तक पहुँचता। समस्या यह होती थी कि जो सक्षम पंचायतें थी, वो मनरेगा की राशि पहले पहल उपयोग कर और अधिक फंड की माँग सरकार को भेज देतीं। लेकिन, जब विभाग या मंत्रालय के अधिकारी निर्गत राशि के हिसाब का मिलान करते तो पता चलता था कि अभी तो आपके राज्य में, जिलों में या पंचायतों में करोड़ों रुपये लंबित हैं, फिर निर्देश आता कि आप लंबित राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र मंत्रालय को उपलब्ध कराईये, उसकी समीक्षा के बाद ही अगली किस्त जारी की जाएगी। इस व्यवस्था में पंचायतों से राशि वापस लेकर उन पंचायतों या प्रखण्डों को मुहैया कराई जाती थी जहाँ राशि की आवश्यकता रहती थी, इस जटिल प्रक्रिया में महीनों मनरेगा कार्य प्रभावित रह जाते थे। भारत सरकार ने सिविल सोसायटी सदस्यों और अन्य समितियों के सुझावों के आधार पर एक अप्रैल 2013 से मनरेगा सॉफ्टवेयर में व्यापक बदलाव करते हुए राज्य से सीधे पंचायतों के खाते में राशि मुहैया कराने की सुविधा प्रदान की।

पश्चिम सिंहभूम जिले के गोलासाईं गाँव में मनरेगा के कामकाज का भौतिक सत्यापन करते हुए जेम्स हेरंज व उनके सहयोगी।

इसी प्रकार झारखंड में योजना स्वीकृति की प्रक्रिया और मनरेगा सूचना प्रबंधन प्रणाली में दो मुख्य बदलाव किए गए। जिसमें पहला योजनाओं की स्वीकृति हेतु जो प्रत्येक योजना की फ़ाइलें जिला ग्रामीण विकास अभिकरण को मंगाए जाते थे, उसे प्रखण्ड में स्वीकृत करने हेतु राज्य आदेश जारी किया गया। दूसरा मनरेगा में पंजीयन से लेकर मजदूरी भुगतान तक सारी गतिविधियों को जिला मुख्यालय में कंप्यूटरीकृत किया जाता था, इस प्रक्रिया में भी बेवजह विलंब हुआ करता था। इसे भी प्रखण्डों में शिफ्ट किया गया। आज की तिथि में झारखंड सरकार द्वारा पांच लाख तक की योजनाओं की स्वीकृति देने के लिए पंचायतों को ही अधिकृत किया गया है। इसी प्रकार डेढ़ लाख तक की योजनाओं के लिए अंचल के अधकारियों से भूमि सत्यापन आवश्यक नहीं है।

राज्य में काफी जद्दोजहद और सामाजिक संगठनों के निरंतर जनदबाव के बल पर जनवरी 2017 से मनरेगा कार्यों का सामाजिक अंकेक्षण प्रारंभ किया जा चुका है, जिसने देश में एक मील का पत्थर स्थापित किया है। कोविड काल 2020-21 में राज्य के 10.64 लाख परिवारों ने महज सात महीने में अपना पंजीयन कराया। इससे सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि जब देश के मजदूरों को शहरों ने दुत्कारा तब गाँव में मनरेगा ने ऐसे बेबस मजदूरों को गले लगाया। आज मनरेगा के जरिए न सिर्फ मजदूरों को रोजगार मुहैया कराया गया है, बल्कि वैसे लाभुकों के सपने भी पूरे किए गए जो आजादी के बाद से ही सरकारी योजनाओं से वंचना के शिकार होते रहे थे।

दलित, आदिवासी, सीमांत किसान, आदिम जनजाति जैसे समुदायों के कुएं बने, खेत समतलीकरण हुए, आहर और तालाब बने, आम के बागवानी लगे, इन सब योजनाओं के कारण गाँव में आर्थिक समृद्धि बढ़ी है। ऐसे बदलाव के सैकड़ों कहानियाँ झारखंड के गांवों में आपको मिल जाएंगी। लेकिन दुःखद पहलू यह भी है कि टेक्नोक्रेट्स द्वारा पारदर्शिता और योजना में भ्रष्टाचार रोकने का हवाला देकर नीत नई तकनीक इस योजना में प्रयोग की जा रही है। उदाहरण के लिए नेशनल मोबाइल मोनिट्रिंग सिस्टम, आधार आधारित भुगतान प्रणाली, ड्रोन निगरानी प्रणाली आदि के कारण आज योजना प्रभावित हो रही हैं। केंद्र सरकार द्वारा हर साल मनरेगा के बजट में व्यापक कटौती के कारण भी मनरेगा मजदूर और योजनाएं प्रभावित हो रही हैं।

(जेम्स हेरंज झारखंड नरेगा वॉच के संयोजक हैं।)

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