आदिवासी एकता परिषद के संस्थापक कालूराम धोडरे का जन्म महाराष्ट्र के पालघर में हुआ था और उन्हें सब प्यार से कालूराम काका कहते थे
राहुल बनर्जी
पश्चिमी भारत में न्याय के लिए भील आदिवासियों के जन आंदोलन के अगुआ रहे और भूमि सेना और आदिवासी एकता परिषद के संस्थापक कालूराम धोडरे का 10 अक्टूबर 2024 को मुंबई के एक अस्पताल में निधन हो गया। उनके द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन बहुत बड़ा हो गया है।
कालूराम धोडरे का जन्म साल 1936 में महाराष्ट्र के तब के ठाणे जिले के पालघर तालुका में मनोर के पास कोंधन गांव में हुआ था। उनके माता-पिता ने उन्हें सरकारी आवासीय विद्यालय में पढ़ाई के लिए भेजा था। उन्होंने अपने स्कूली जीवन में ही आदिवासियों के अधिकारों के लिए अपनी सक्रियता की शुरुआत कर दी थी। तब उन्होंने आदिवासियों के खिलाफ अन्याय और अत्याचारों के बारे में प्रशासन को लिखित आवेदन दिया था। स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्होंने स्कूल में होने वाले दुर्व्यवहारों को सामने लाया।
सूदखोरों से कर्ज, आदिवासी जमीनों का गैर आदिवासियों को दे देना, गैर आदिवासी लोगों द्वारा आदिवासी महिलाओं का बलात्कार और शहरीकरण की वजह से विस्थापन, उस समय आदिवासी इलाकों की घिनौनी तस्वीर थी। हालांकि, केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन तत्कालीन ठाणे जिले और खासकर पालघर तालुका में सोशलिस्ट पार्टी सक्रिय थी। पार्टी ने आदिवासी जन आंदोलन को जमीन पर खड़ा किया था।
पार्टी ने आदिवासी जनांदोलन के लिए जमीन तैयार की। कालूराम इस आंदोलन से जुड़ गए। कालूराम को अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहने के दौरान उन्हें वैचारिक शिक्षा मिली और संगठन की भी शिक्षा मिली। यहां से शुरू हुआ कालूराम का सफर पिछले 60 सालों में लगातार जारी था। सबसे पहले 1970 में भूमि सेना की स्थापना हुई, क्योंकि कालूराम ने पाया कि सोशलिस्ट पार्टी भूमि अधिकारों की लड़ाई में पूरी तरह से शामिल होने को तैयार नहीं है।
कालूराम की भूमि सेना ने गैर आदिवासी लोगों की ओर से हड़पी गई जमीनों पर कब्जा करके इतिहास रच दिया। इससे भूमि दावों की प्रक्रिया राजस्व कार्यालय के बजाय सीधे मौके पर ही पूरी हो गई और एक दिन के भीतर करीब 800 आदिवासियों को उनकी खोई हुई जमीन वापस मिल गई। इसके बाद यह बड़े आंदोलन में बदल गया और हजारों आदिवासियों को भूमि अधिकार मिले। बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए भूमि सेना का वेठ बेगार मुक्ति आंदोलन भी उस दौर में काफी मशहूर हुआ था। कुलियों और ड्राइवरों जैसे असंगठित श्रमिकों के लिए भी श्रमिक संघों का गठन किया गया।
उन्हें सब प्यार से कालूराम काका कहते थे। लेकिन, वह पूरे भील जनजाति के लिए मजबूत आंदोलन की कमी से अभी भी असंतुष्ट थे और इस बात से परेशान थे कि भील आदिवासियों के कई छोटे आंदोलन बिखर गए थे। इसलिए, जो शायद उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी, उन्होंने अन्य लोकप्रिय कार्यकर्ता वाहरू सोनावने के साथ मिलकर पश्चिमी भारत के सभी संगठनों को एक साथ लाने के लिए 1990 में आदिवासी एकता परिषद की स्थापना की।
अलीराजपुर में खेदुत मजदूर चेतना संगठन इस शक्तिशाली मंच का सदस्य है जो अब भील आदिवासियों के लिए अलग सांस्कृतिक पहचान और स्वायत्त मातृभूमि की वकालत करता है। हर साल जनवरी में इसके लाखों सदस्य एकत्रित होते हैं। आज भील आदिवासी आधुनिक भारत में अपनी जगह बनाने में सक्षम बुद्धिजीवियों के मजबूत दल का दावा करते हैं, इसका कारण कालूराम काका की विद्रोही प्रवृत्ति है, जो उन्होंने उन्हें दी है। उनकी विरासत अमूल्य है।
(लेखक मध्यप्रदेश में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ हैं और उनके लिंक्डइन एकाउंट पर अंग्रेजी में लिखे गये इस आलेख को साभार लिया गया है, जिसका हिंदी अनुवाद हमने यहां प्रकाशित किया है।)