उधवा के मछुआरे अपने पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए समुदाय-संचालित, पारंपरिक तरीकों का उपयोग करते हैं, लेकिन बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए उन्हें सरकारी सहयोग की आवश्यकता है।
राहुल सिंह
उधवा (झारखंड) : झारखंड का साहिबगंज जिला अपनी अनूठी भौगोलिक विशेषताओं के साथ, जैव विविधता से समृद्ध है। खासकर गंगा नदी का तटीय क्षेत्र होने की वजह से इसके असंख्य जल निकाय इसे विशिष्ट बनाते हैं।
साहिबगंज जिला मत्स्य कार्यालय के आंकड़ों से पता चलता है कि जिले में 659 तालाब, झीलें और अन्य जल निकाय हैं, जिनका क्षेत्रफल लगभग 516 हेक्टेयर (1,274 एकड़) है, जिनकी मछली पकड़ने के लिए नीलामी की जाती है।
यहांँ गंगा नदी राजमहल की पहाड़ियों से मिलती है और असंख्या जल निकाय सृजित होता है। उधवा के मछुआरों ने इन जल निकायों के इर्द-गिर्द अपना जीवन बसाया है। यहां दशकों से चली आ रही एक सहकारी प्रणाली के माध्यम से जल निकायों का प्रबंधन व संरक्षण होता है और उसमें मछुआरे अपनी आजीविका के लिए मछली पकड़ते हैं।
इस परंपरागत पेशे के केंद्र में उधवा प्रखंड मत्स्यजीवी सहयोग समिति लिमिटेड है, जो 483 सदस्यों वाली एक सहकारी समिति है। यह समिति मछली पकड़ने के संसाधनों का प्रबंधन करती है। औपचारिक चुनाव कराने वाली कुछ सहकारी समितियों के विपरीत, उधवा प्रखंड मत्स्यजीवी सहयोग समिति लिमिटेड अक्सर अपने अध्यक्ष और सचिव का चुनाव पाँच साल के कार्यकाल के लिए आम सहमति से करती है, और बाद में मत्स्य विभाग को सूचित करती है।

यह सहकारी समिति सरकार से तीन साल के लिए 55 झीलों और तालाबों को पट्टे पर लेती है। उदाहरण के लिए, 2024-27 की अवधि के लिए पट्टे की लागत 2,24,300 रुपये है। इस प्रणाली ने कम से कम 1995 से मछुआरों के बीच आकार ले रखा है। हालाँकि समय के साथ सरकारी निगरानी बढ़ी है और सदस्य इसे एक समर्थन के रूप में देखते हैं।
पट्टे पर दिए जाने के बाद, सहकारी समिति जल निकायों को सदस्यों या छोटे समूहों को उप-पट्टे पर दे देती है। चार से छह लोगों की टीमें आमतौर पर सालाना एक से तीन तालाब लेती हैं, जबकि बड़ी झीलों में 25 मछुआरे तक रह सकते हैं। उप-पट्टे की दरें आकार और क्षमता के अनुसार अलग-अलग होती हैं, और आय को मुख्य सरकारी पट्टे के लिए एकत्रित किया जाता है।
मछुआरों का कहना है कि यह काम लाभदायक है। अतुल चौधरी (60 वर्ष), जिनके पास कोई कृषि भूमि नहीं है, अपनी छह सदस्यीय टीम के साथ 11,000 रुपये प्रति वर्ष के उप-पट्टे पर लिए गए एक तालाब से अपना जीवन यापन करते हैं।
अधिकांश सदस्य पारंपरिक केवट समुदाय से हैं, लेकिन 100 से ज़्यादा अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समूहों से भी सदस्य हैं। सचिव पप्पू चौधरी ने कहा, “केवटों की संख्या ज़्यादा है क्योंकि वे परंपरागत रूप से यह काम करते आए हैं, लेकिन सहकारी समिति सभी के लिए खुली है। हमने आदिवासी परिवारों को भी तालाब पट्टे पर दिए हैं”।

चार महिला सदस्य जो समिति की कार्यकारिणी की भी सदस्य हैं, जिनका कार्यकारिणी में होना आवश्यक है ताकि समावेशी निर्णय लिए जा सकें, जिसमें महिलाओं का भी प्रतिनिधित्व मौजूद हो। हालाँकि यहां महिलाएँ मछली पकड़ने के काम में शामिल नहीं होतीं, लेकिन अक्सर स्थानीय बाज़ारों में वे मछलियों का कारोबार करती हैं।
सहकारी संस्था जल निकायों का स्वास्थ्य बनाए रखने व पारिस्थितिकी संतुलन के लिए कुछ प्रमुख नियमों का पालन करती है, जैसे: मानसून के दौरान मछली पकड़ने की मनाही, खतरनाक रासायनों का प्रयोग नहीं करना आदि। छठ पर्व के बाद से फरवरी से मार्च तक मछली पकड़ने का काम फिर से शुरू हो जाता है। दिलचस्प बात यह है कि ज़रूरत से ज्यादा मछली पकड़ने पर कोई औपचारिक दंड नहीं है। सदस्यों का कहना है कि स्व-नियमन स्वाभाविक है क्योंकि उनकी आजीविका इस संसाधन पर निर्भर करती है और वे इसके प्राथमिक संरक्षक के रूप में कार्य करत हैं।
मछुआरे पानी में प्लास्टिक डालने से भी बचते हैं और मछलियों की तेज़ी से वृद्धि के लिए रासायनिक तरीकों की बजाय तालाबों की सफाई के पारंपरिक, जैविक तरीकों को प्राथमिकता देते हैं।
पप्पू चौधरी ने कहा, “हम अपनी सामूहिक शक्ति के कारण तालाबों को किसी भी प्रकार के अतिक्रमण या नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधि को रोकते हैं”।
टकराव नहीं
2 फ़रवरी, 2025 को उधवा झील को आधिकारिक तौर पर रामसर साइट का दर्जा प्राप्त हुआ, जिससे यह झारखंड की पहली अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त आर्द्रभूमि बन गई। इस क्षेत्र को इससे पहले ही पक्षी अभयारण्य घोषित किया जा चुका है, जिसका अर्थ है कि 1972 का वन्यजीव संरक्षण अधिनियम यहां लागू होता है। यह अभयारण्य दो झीलों, पतौड़ा (155 हेक्टेयर) और बड़हेल (410 हेक्टेयर) को शामिल करता है, जिनका कुल क्षेत्रफल 565 हेक्टेयर है और यह 935.5 हेक्टेयर के व्यापक पारिस्थितिक-संवेदनशील क्षेत्र (इको सेंसेटिव जोन) में स्थित है। इस मान्यता के बावजूद, मछुआरे इस बात की पुष्टि करते हैं कि रामसर स्थल के बाहर उनके लिए 55 अन्य झीलें और तालाब उपलब्ध हैं, जिससे पक्षी अभयारण्य के दर्जे को लेकर संभावित टकराव की स्थिति नहीं होती है।

उधवा के मछुआरे प्राकृतिक जल निकायों का संरक्षण करते हैं, उससे अपनी आजीविका अर्जित करते हैं और उसमें कोई खतरनाक केमिकल या कीटनाशक नहीं डालते बल्कि प्राकृतिक तरीके से उसकी सफाई करते हैं। हालांकि उन्हें अवैध मछली पकड़ने की गतिविधियों का सामना करना होता है।
वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए अभयारण्य का मुख्य क्षेत्र मछुआरों के लिए पूरी तरह से प्रतिबंधित है। उधवा पक्षी अभयारण्य के प्रभारी इंद्रजीत कुमार दास ने इस प्रतिबंध की पुष्टि की, लेकिन यह भी बताया कि मुख्य क्षेत्र के बाहर मछली पकड़ने की गतिविधियों को विनियमित नहीं किया जाता है। साहिबगंज के वन प्रमंडल पदाधिकारी (डीएफओ) प्रबल गर्ग ने सतत मत्स्य पालन (sustainable fishing) और रामसर कन्वेंशन की आर्द्रभूमि के विवेकपूर्ण उपयोग (Wise Use of Wetlands) की अवधारणा का समर्थन करते हुए (जो पारिस्थितिकी और सामुदायिक लाभों के बीच संतुलन बनाती है) इस बात पर ज़ोर दिया कि अभयारण्य क्षेत्र में प्रवेश निषिद्ध है।
संकट में जीवनरेखा
इन सार्वजनिक संसाधनों के प्रबंधन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, उधवा के मछुआरों को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके लिए वे तत्काल सरकारी और प्रशासनिक सहायता चाहते हैं। एक प्रमुख चिंता तालाबों का रखरखाव है।
मछुआरों की समिति के सचिव पप्पू चौधरी ने अफसोस जताते हुए कहा, “बेहतर होता अगर इन तालाबों की सफाई उसी समय कर दी गई होती जब हमने इन्हें पट्टे पर लिया था”। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मछुआरों के पास सफाई के लिए संसाधनों की कमी है और सरकार को यह काम करना चाहिए। तालाबों में जलकुंभी एक विशेष रूप से गंभीर समस्या है। मछुआरा जितेंद्र चौधरी (54) ने इसे अपनी सबसे बड़ी समस्या बताया, जिससे नौवहन और मछली पकड़ना बेहद मुश्किल हो गया है। हालाँकि, साहिबगंज के ज़िला मत्स्य पदाधिकारी बीरेंद्र कुमार बिन्हा और राज्य मत्स्य निदेशक एचएन द्विवेदी दोनों ने कहा कि उपयोगकर्ता होने के नाते, मछुआरे तालाब की सफाई के लिए ज़िम्मेदार हैं और इसके लिए कोई सरकारी धन उपलब्ध नहीं है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि मछुआरे जलकुंभी से जैविक खाद बना सकते हैं। चौधरी ने यह भी बताया कि गिदला तालाब पाँच साल से सूखा पड़ा है, जिससे कोई लाभ नहीं हो रहा है और इसकी खुदाई की सख्त ज़रूरत है।

जलकुंभी मछुआरों की एक प्रमुख समस्या है। इसकी सफाई के लिए वे सरकार से सहयोग की अपेक्षा रखते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि मछुआरे अक्सर गर्मियों में तालाबों से जलकुंभी निकालते हैं, लेकिन उनका मानना है कि सरकारी सहायता से यह प्रक्रिया और अधिक कुशल हो जाएगी। उन्होंने बताया कि पट्टे पर लिए गए तालाब मालिक स्वाभाविक रूप से अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सफाई को प्राथमिकता देते हैं।
मछुआरे अवैध गतिविधियों से भी जूझते हैं। अनधिकृत समूह अक्सर बड़ी संख्या में सहकारी समिति को पट्टे पर दिए गए तालाबों में अवैध रूप से मछली पकड़ते हैं, जिससे मछुआरों को इन अधिकारों के लिए सरकार को भुगतान करने के बावजूद भारी वित्तीय नुकसान होता है। चौधरी ने यह भी बताया कि किसान अक्सर झीलों और तालाबों का पानी अपने खेतों की ओर मोड़ देते हैं, जिससे जल स्तर कम हो जाता है और मछलियों की आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मछुआरे इन मुद्दों के खिलाफ सरकारी सुरक्षा की उम्मीद करते हैं। राज्य के मत्स्य निदेशक द्विवेदी ने पुष्टि की कि जिला मत्स्य अधिकारी इन शिकायतों के समाधान के लिए पुलिस और जिला प्रशासन के साथ समन्वय करने के लिए ज़िम्मेदार हैं, और मछुआरे सीधे पुलिस से भी संपर्क कर सकते हैं। चौधरी ने जल निकायों के संरक्षण में अपने समुदाय के ऐतिहासिक नेतृत्व को रेखांकित करते हुए ज़ोर देकर कहा, “हम अपने पूर्वजों के समय से मछली पकड़ने में लगे हुए हैं, और हम पीढ़ियों से इस सार्वजनिक संसाधन के रक्षक रहे हैं”।

जिला मत्स्य अधिकारी का कहना है कि विभाग शिकायतों के आधार पर कार्रवाई करता है। बिन्हा ने बताया कि अब ज्यादा लोग इन तालाबों से जीविकोपार्जन के लिए जुड़ रहे हैं और उन्होंने मछली पकड़ने की हानिकारक प्रथाओं के खिलाफ विभाग के प्रयासों पर ज़ोर देते हुए कहा, “जलाशयों में विस्फोट या ज़हर का इस्तेमाल काफ़ी नुकसान पहुँचाता है, और छोटे जाल भी नुकसानदेह होते हैं। हमने इन पर प्रतिबंध लगा दिया है”। उन्होंने राजमहल क्षेत्र के तालाबों से कंक्रीट के ढाँचों को हटाने को विभागीय उपलब्धि बताया।
पंचायतों के साथ साझेदारी
वर्तमान में, झारखंड में पंचायतों की प्राकृतिक जल स्रोतों और मत्स्य पालन के प्रबंधन या संरक्षण में कोई स्पष्ट और सक्रिय भूमिका नहीं है।
मत्स्य निदेशक ने उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी के अभाव की पुष्टि की, हालाँकि तकनीकी रूप से झारखंड पंचायती राज अधिनियम, 2001 के तहत उन्हें तालाब निर्माण, मरम्मत, प्रदूषण नियंत्रण और जलमार्ग प्रबंधन के लिए शक्तियाँ प्राप्त हैं। स्थानीय पंचायत अधिकारियों और मछुआरा प्रतिनिधियों ने भी इस सीमित भागीदारी की पुष्टि की और कहा कि वे मुख्य रूप से मत्स्य विभाग के साथ काम करते हैं।
मछुआरों की सहायता के लिए, साहिबगंज जिला मत्स्य कार्यालय, प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना पर आधारित धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष योजना जैसी योजनाओं को बढ़ावा देता है। इसके तहत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के मत्स्य पालकों और महिलाओं को 60 प्रतिशत और अन्य को 40 प्रतिशत सब्सिडी प्रदान की जाती है। जिन किसानों के अपने तालाब हैं, वे एकीकृत मत्स्य पालन के लिए किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) ऋण प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें बत्तख-सह-मछली पालन जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं। कुछ मछली पकड़ने वाले जालों के लिए 90 प्रतिशत तक की सब्सिडी भी उपलब्ध है। विभाग तीन दिवसीय कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम और दुर्घटना बीमा भी प्रदान करता है, जिसमें मछली पकड़ने के दौरान मृत्यु होने पर 5 लाख रुपये और विकलांगता होने पर 2.5 लाख रुपया का मुआवज़ा दिया जाता है।

हालाँकि, ज़िले में लगभग छह हज़ार की संख्या में होने के बावजूद, कई पारंपरिक मछुआरे अक्सर इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं। वे पारंपरिक रूप से काम करते हैं और हो सकता है कि कुशल व्यवसायी के मानदंडों पर खरे न उतरते हों या योजना का लाभ उठाने के लिए उनके पास आवश्यक छुआरा कार्ड न हों।
पारंपरिक ज्ञान
उधवा के मछुआरे जल उपचार के लिए बहुमूल्य पारंपरिक तरीकों को अपनाते हैं, जैसे कि तालाबों में गोबर, चूना, पोल्ट्री फार्म का कचरा और सरसों की खली डालना ताकि पानी साफ़ हो और मछलियों के लिए एक स्वस्थ वातावरण बने, खासकर रसायनों से परहेज़। हालाँकि, वे मछलियों की वृद्धि में सहायता के लिए कुछ ‘विटामिन’ (संभवतः पोषक तत्व) मिलाने का ज़िक्र ज़रूर करते हैं।
फिर भी, महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। पुराने मछुआरों को लगता है कि उनके पूर्वजों के समय में जलकुंभी बहुत कम संख्या में थीं। इसके अलावा, पारंपरिक, बायोडिग्रेडेबल सूती जालों से प्लास्टिक जालों की ओर बदलाव एक पर्यावरणीय ख़तरा पैदा करता है। जैसा कि चौधरी ने बताया, “पुराने सूती जाल पानी में छोड़ देने पर बिना किसी नुकसान के सड़ जाते हैं, जबकि प्लास्टिक जाल जलीय जीवन को फँसाकर मार सकते हैं”। उन्होंने प्लास्टिक जालों को बदलने के लिए नमामि गंगे के एक प्रस्ताव का ज़िक्र किया, जो दुर्भाग्य से कभी लागू नहीं हुआ। जल निकायों की वर्तमान स्थिति उनकी विरासत को भी प्रभावित करती है; चौधरी ने दुःख के साथ अपने पिता के साथ उधवा नाला से पश्चिम बंगाल के फरक्का तक नाव से की जाने वाली अपनी ऐतिहासिक यात्रा को याद किया और कहा कि अब अतिक्रमण व नुकसान की वजह से ऐसा संभव नहीं है।
आगे की राह
उधवा में मछुआरे सह-अस्तित्व के सिद्धांत को अपनाते हैं और क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता और सामुदायिक संपदा के साथ अपनी आजीविका का सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं। झीलों और तालाबों जैसे महत्वपूर्ण सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के अपने सामूहिक प्रयासों के माध्यम से, उन्होंने एक समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया है जो पक्षियों की 140 और जलीय जीवन की 30 प्रजातियों का प्रभावशाली पोषण करता है। एशियाई जलपक्षी जनगणना 2025 में उधवा में 60 प्रकार के आर्द्रभूमि पक्षियों को दर्ज किया गया। उल्लेखनीय रूप से, राजमहल ब्लॉक में पुरुलिया झील में सबसे अधिक 14,442 पक्षी दर्ज किए गए, उसके बाद बरहेल में 8,191 और पतौड़ा में 1,840 पक्षी दर्ज किए गए।

उधवा के मछुआरे केवल संसाधन के उपयोगकर्ता ही नहीं हैं; वे एक ऐसा समुदाय हैं जिसके पास इसके प्रबंधन और पोषण की एक गहरी जड़ जमाई हुई प्रणाली है, जो पीढ़ियों से इस सार्वजनिक संसाधन के संरक्षक के रूप में कार्य कर रहे हैं। उनकी दो मुख्य माँगें स्पष्ट हैं – जल निकायों की सरकारी वित्त पोषित सफाई – विशेषकर जलकुंभी हटाना या स्वयं इस कार्य को करने के लिए वित्तीय अनुदान, और अवैध मछली पकड़ने और जल की दिशा को मोड़ने पर रोक व सुरक्षा।
आम सहमति और पारंपरिक ज्ञान पर आधारित उनका आत्मनिर्भर सहकारी मॉडल स्थानीय संसाधन प्रबंधन का प्रमाण है। हालाँकि, पर्यावरणीय क्षरण, अतिक्रमण और प्रत्यक्ष, एकीकृत सरकारी समर्थन की कमी के बढ़ते दबाव ने उनके पारंपरिक तरीकों पर दबाव डाला है, जिससे उनकी आजीविका और इन महत्वपूर्ण आर्द्रभूमियों, दोनों की रक्षा के लिए सहयोगात्मक समाधानों की काफी जरूरत महसूस होती है।
(यह कहानी प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स फेलोशिप द्वारा समर्थित है, जो कॉमन्स यानी प्राकृतिक सामुदायिक संपदा के महत्व और इसके सामुदायिक प्रबंधन पर केंद्रित है।)
यह स्टोरी हमने 101Reporters से अनूदित कर साभार प्रकाशित है, 101Reporters पर इसे अंग्रेजी में पढने के लिए इस लिंक को क्लिक करें।