बैगा समुदाय की मैकाल पर्वतमाला पर संसाधनों तक सीमित होती पहुँच, बढता संकट

दिब्येंदु चौधरी

कबीरधाम जिला, छत्तीसगढ़

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा से सटी मैकाल पर्वतमाला का दुर्गम क्षेत्र बैगा समुदाय का घर है, जो भारत के विशिष्ट रूप से कमजोर जनजातीय समूहों में से गिने जाते हैं। कभी इस समुदाय को जंगलों में बेरोकटोक विचरण और संसाधनों के उपयोग की पूरी आजादी थी, जो उनके जीवन और आजीविका का आधार थे।​ 

​​बैगा समुदाय का मानना है कि उनकी जड़ें मध्य भारत के केंद्र में हैं, विशेषकर मध्यप्रदेश के डिंडोरी जिले में स्थित बैगा चक में। हालांकि, ब्रिटिश शासन के दौरान उपनिवेशीय नीतियों ने उन्हें गांवों के छोटे-छोटे समूहों में सीमित कर दिया था और जंगलों तक उनकी पहुंच पर कई पाबंदियां लगा दी गयी थी। इसी दौर में कई परिवार अपने पारंपरिक रहवास से निकलकर तत्कालीन कवर्धा रियासत की ओर चले गए थे। यहां वे मैकाल पर्वतमाला की पहाड़ियों में बस गए, जहां वे आज भी रहते हैं।​ 

​​वर्तमान में बैगा समुदाय एक नई चुनौती का सामना कर रहा है। घटते वन संसाधन और जंगलों तक पहुंच पर निरंतर प्रतिबंध, विशेषकर बेवार (झूम खेती) पर रोक तथा मवेशियों के लिए बाजार और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी ने उनकी आजीविका पर गहरा असर डाला है। ऐसे में इस समुदाय को विवश होकर दिहाड़ी मजदूरी का सहारा लेना पड़ रहा है।​ 

​​कबीरधाम जिले की मैकाल पर्वतमाला से जुड़े गांवों का दौरा करते समय मैंने ग्रामीणों से व्यक्तिगत बातचीत के साथ-साथ सामूहिक चर्चाएं भी की। मैकाल क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले मैंने आसपास के गांवों में गैर-लाभकारी संस्थाओं के कर्मचारियों और किसानों से भी बातचीत की। इन चर्चाओं के दौरान कुछ लोगों ने बैगा समुदाय के बारे में यह कहते हुए टिप्पणी की कि वे ‘आलसी’ या ‘काम में लापरवाह’ होते हैं।​ 

​​यह एक आम स्थानीय पूर्वाग्रह है, जिसके परिणामस्वरूप बैगा समुदाय के लोगों को अन्य समुदायों के मजदूरों के मुकाबले कम मजदूरी दी जाती है। फिर चाहे वो गन्ने के खेतों में काम हो या पड़ोस के बड़े जमींदारों के धान के खेतों में दिहाड़ी मजदूरी। आमतौर पर बैगा मजदूरों को रोजाना केवल 150 से 200 रुपये ही मिलते हैं। बघमारा गांव के हीरा देवारिया* बताते हैं कि, गन्ना काटने में लगे दूसरे मजदूर, खासकर जो उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं, हमसे ज्यादा मजदूरी कमाते हैं।​ 

​​बैगा समुदाय का दिहाड़ी मजदूरी की ओर रुख करना उनकी जंगलों से दूर होती जीवनशैली का प्रतीक है। फोटो: आईडीआर/दिब्येंदु चौधरी।

कंधावनी गांव के शेरू बैगा* ने बताया, “हम गोंड और दूसरी जातियों के खेतों में मजदूरी करते हैं। उनके पास नाले (छोटी नदी) के पास की सिंचित जमीन है। हमारे पास ऐसे खेत नहीं है, इसलिए हमें उनके खेतों में मजदूरी करनी पड़ती है। मैदानी इलाकों में मिलने वाली मजदूरी कहीं बेहतर है, लेकिन हमें यहां बस इतना ही मिलता है।”​ 

​​बघमारा गांव के ही तिहार लाल धुर्वे* जंगलों से जुड़ी अपनी पारंपरिक पहचान के कमजोर होने और मजदूरी पर बढ़ती निर्भरता को लेकर चिंता जताते हैं। वह कहते हैं, “हमें जंगल में रहना और यहीं अपनी रोजी-रोटी कमाना अच्छा लगता है। लेकिन अब जंगल से हमारा गुजारा नहीं हो पाता (क्योंकि संसाधन घटते जा रहे हैं)। हमें मजबूरन मजदूरी करनी पड़ती है, जबकि हमें यह पसंद नहीं है।”​ 

​​इसी गांव की सनमत बाई* अपनी 11 वर्षीय भतीजी लाईली* के साथ रहती हैं। लाईली को अपने परिवार के गुजारे के लिए पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। खेती करने या जंगल से उपज इकट्ठा करने के लिए उनके घर में कोई अन्य सदस्य नहीं था।​ 

​​​​बैगा समुदाय की एक प्रतीकात्मक तसवीर। क्रेडिट – द इंडियन ट्राइबल।

सनमत बताती हैं, “अब मेरी उम्र हो चली है। मैं मजदूरी के लायक नहीं रही। इस साल लाईली पहली बार गांव के दूसरे लोगों के साथ गन्ना काटने गई थी। उसने दो महीने में दस हजार रुपये कमाए। अब सालभर के लिए हम दोनों का गुजारा इसी पैसे से होगा।”​ 

सनमत बताती हैं, “अब मेरी उम्र हो चली है। मैं मजदूरी के लायक नहीं रही। इस साल लाईली पहली बार गांव के दूसरे लोगों के साथ गन्ना काटने गई थी। उसने दो महीने में दस हजार रुपये कमाए। अब सालभर के लिए हम दोनों का गुजारा इसी पैसे से होगा।”​ 

​​गन्ना कटाई के दौरान बघमारा और आसपास के गांवों के कई बैगा परिवारों को अस्थायी रूप से पलायन करना पड़ता है। ये लोग महीनों तक पॉलीथीन से बनी अस्थायी झोपड़ियों में रहते हैं और सुबह से लेकर सांझ तक गन्ना काटते हैं। इसके बदले में इन्हें आमतौर पर 300 रुपये तक की दिहाड़ी मिलती है।​ 

​​प्रवासी परिवारों की परिस्थितियों का हवाला देते हुए सचपाल मरावी* बताते हैं, “जब हम गांव से काम पर निकलते हैं, तो थोड़ा चावल साथ ले जाते हैं। लेकिन वह जल्दी ही खत्म हो जाता है। इसके बाद हमें 30 रुपये किलो की दर से चावल खरीदना पड़ता है। ऐसे में हमारे पास कुछ खास नहीं बचता, जिसके साथ हम घर लौट पायें।”​ 

​​बैगा समुदाय के लिए दिहाड़ी मजदूरी को अपनाना सिर्फ कमाने-खाने से जुड़ा बदलाव भर नहीं है। यह उनके लिए जंगलों से कटने का भी प्रतीक है, जो कभी उनकी पहचान और जीवन की नब्ज हुआ करते थे। कठिन परिस्थितियों में घर से दूर काम करना और बस किसी तरह गुजर करने लायक आमदनी कमा पाना उनके भीतर असंतोष और असुरक्षा की भावना को गहरा करता जाता है।​ 

​​*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।​ 

(यह आलेख हमने इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू हिंदी से साभार प्रकाशित है। आप आईडीआर हिंदी पर जाकर हिंदी में व आईडीआर पर जाकर अंग्रेजी में इस आलेख को पढ सकते हैं।)

लीड फोटो मोंगाबे इंडिया से साभार ली गई है।

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