झारखंड के 16 आदिवासी गांवों की वन संपदा को संरक्षित करने की अनूठी पहल

परंपरागत ज्ञान, साझा जिम्मेवारी और आदिवासी स्व शासन व्यवस्था पर आधारित है पाकुड़ जिले की यह पहल


पाकुड़: आदिवासी समाज में ऐसी कई स्वस्थ्य परंपराएं हैं, जो अहम बदलाव की वजह बन सकती हैं। और, उनकी इसी खूबी व क्षमता को परिवर्तन का आधार बनाया गया। झारखंड की राजधानी रांची से सुदूर उत्तर पूर्व में स्थित पाकुड़ जिले के लिट्टीपाड़ा प्रखंड के 14 गांवों ने मिल कर जंगल को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया और इसके लिए अपने परंपरागत ज्ञान, साझा जिम्मेवारी और स्वशासन व्यवस्था को आधार बनाया।

जनवरी 2025 में लिट्टीपाड़ा प्रखंड के डुरियो, झपरी, कठलपाड़ा, गद पहारी और छोटा पोखरिया जैसे गांवों में हुई बैठकों से यह विचार पनपने लगा कि एक पहल से बदलाव किया जा सकता है। इन चर्चाओं को 4एस इंडिया (सर्व सेवा समिति संस्थान) के साथियों ने सुविधाजनक बनाया। ऐसी पहल का उद्देश्य समाधान बताना नहीं बल्कि गांवों को सोचने, अपने अनुभव साझा करने के लिए जगह देना था।

मखनीपहाड़ के प्रधान विनोद मालतो कहते हैं, “इस क्षेत्र में हर साल महुआ फूलों के गिरने से पहले गांवों में सूखी पत्तियां जलायी जाती थी, ताकि फूल आसानी से एकट्ठा किए जा सकें। लेकिन, बार-बार आग लगाने से जंगल की सेहत पर असर पड़ रहा था। उसके कई दुष्परिणाम थे”।

दुनियो गांव के बड़ा गुईया बताते हैं, “मशरूम दिखना बंद हो गया था, महुआ की पैदावार कम हो गई थी, हमें महसूस हुआ कि कुछ तो बदल रहा है”।

वन संरक्षण की इस प्रक्रिया की एक अच्छी बात यह रही कि नियम उन पर ऊपर से थोपे नहीं गए, बल्कि उनके साथ बैठकें कर उन्हें बदलाव के लिए प्रेरित किया गया।

ऐसे बदलावों ने लोगों को सोचने को मजबूर किया और फिर लोगों के सामूहिक प्रयास को गद पहारी की ग्राम विकास समिति के द्वारा 14 गांवों की बुलाई गई बैठक से बल मिला। इस बैठक में अनुभव व समाधान साझा किए गए और निर्णय लिया गया कि अब महुआ संग्रह आग के बिना किया जाएगा।

जंगल बचाओ समिति में विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई और समिति का रूपांतरण सामुदायिक वन संरक्षण समिति में हुआ। 4एस इंडिया के कार्यकारी निदेशक मिहिर सहाना कहते हैं, “यह नियम बनाया गया कि झाड़ू से महुआ को एकत्र करना है, पत्तियों का खाद बनाना है और वन संपदा की सामूहिक निगरानी करनी है। ऐसे नियम बाहर से थोपे नहीं गए, बल्कि गांव में आपसी चर्चा में स्वतः उभरे”।

धीरे-धीरे यह प्रयास आसपास के गांवों में फैलने लगा। सामुदायिक वन संरक्षण समिति के कोषाध्यक्ष बनाए गए तिसरो के छोटू चंदू पहाड़िया कहते हैं, “हमें किसी ने बाहर से आकर नहीं बताया कि जंगल कैसे बचाना है, बस हमें इस बारे में एक साथ बैठ कर बात करनी थी”। गीत, नुक्कड़ नाटक व जंगल यात्राओं के जरिये लोगों को जागरूक किया गया।

जंगल बचाने की निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भी हिस्सेदारी है। वे बैठकों में हिस्सा ले रही हैं, नियम बना रही हैं और निगरानी भी कर रही हैं। कठलपाड़ा की मारथा पहाड़िन कहती हैं कि अब ऐसा लगता है कि हम अपने बच्चों के लिए कुछ बचा रहे हैं।

इस प्रक्रिया का और विस्तार करने की रणनीति है। अप्रैल व मई में एसओपी और नियमों पर कलस्टर समीक्षा बैठकों का दौर चलेगा। वन विभाग से चर्चा की जा रही है। 4एस इंडिया के उप निदेशक कुमार गौरव कहते हैं कि यह पता लगा रहे हैं कि इस शासन संरचना को अन्य संसाधनों जैसे चारागाह भूमि, जल निकायों के लिए कैसे अनुकूलित किया जा सकता है।

वनों की सफाई का दृश्य। पत्तियों में आग लगाने से बेहतर है, उसे इकट्ठा करना जिससे वनों को नुकसान भी नहीं होगा और पत्तियां खाद के रूप में भी उपयोगी होंगी।

दुरियो गांव के ग्राम प्रधान दुनु पहाड़िया कहते हैं, “गांव में अब वन जंगल को देखने के नजरिये में बदलाव आया है, न केवल आया के स्रोत के रूप में बल्कि एक ऐसी चीज के रूप में जिसकी देखभाल मिल कर की जानी चाहिए”।

4एस इंडिया कॉमन ग्राउंड पहल की एक साझेदार संस्था है। कॉमन ग्राउंड भारत में पर्यावरणीय शासन और ग्रामीण आजीविका क्षेत्र में कई संस्थाओं की एक साझा पहल है।

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